शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

मिट्टी से गायब हो रहा पोटाश

मिट्टी से गायब हो रहा पोटाश

मिट्टी में फसल उत्पादन के लिए नाईट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की भूमिका अहम रहती है। गोवर आदि जैविक खाद की जगह रासायनिक खेती को बढ़ावा मिलने से पोटाश तत्व की कमी हो गई है। रासायनिक खादों में पोटाश की खाद ज्यादा महंगी रहने से किसान इसका उपयोग अपेक्षाकृत कम कर रहे हैं जिससे फसल उत्पादन के साथ खेतों से पोटाश गायब हो रहा है। लगातार फसल उत्पादन से पोटाश तत्व की मात्रा घटने के साथ पुनः पूर्ति के उपाय नहीं होने से मिट्टी से पोटाश घट रहा है।

मिट्टी उपजाऊ के ये हैं मानक

मिट्टी के उपजाऊ के लिए फास्फोरस की मात्रा 10 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर से कम होने पर लॉ श्रेणी और 10 से 20 किग्रा तक मध्य तथा 20 से ज्यादा हाई आंकी जाती है। नाईट्रोजन प्रति हैक्टेयर 250 किग्रा से कम रहने पर लॉ और 250 से 400 के बीच मध्यम आंकी जाती है। इसी तरह पोटाश की मात्रा नाईट्रोजन के समान निर्धारित है, लेकिन मिट्टी परीक्षण में यह प्रति हैक्टेयर 150 से 200 किग्रा के बीच आ रही है। प्रयोगशाला में हो रहे मिट्टी परीक्षण में उक्त तीनों पोषक तत्वों के अलावा पीएच में अम्लीय और क्षरीय सहित ईसी में घुलनशील लवणों की मात्रा परखी जाती है जो फसल उत्पादन में अहम रहते हैं।

फसल उत्पादन पर प्रभाव

पोटाश के अभाव में पौधों में दाने की चमक फीकी रहना, कीट प्रकोप बढ़ना, पौधों के तनों में मजबूती नहीं रहती। फलस्वरूप पोटाश की कमी से फसल उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है। जबकि नाईट्रोजन से पत्तियां हरी और पौधों में वृद्घि होती है जबकि फास्फोरस से पौधों की जड़ों में वृद्घित होती है। वर्तमान में किसान सबसे ज्यादा यूरिया व डीएपी का उपयोग कर रहे हैं। यूरिया में नाईट्रोजन और डीएपी में 18ः46 के अनुपात में नाईट्रोजन रहता है, लेकिन पोटाश की पूर्ति नहीं हो पाती।

सूक्ष्म तत्वों की नहीं हो रही जांच

जिला मुख्यालय की प्रयोगशाला में मिट्टी परीक्षण के अन्य सूक्ष्म तत्वों का परीक्षण नहीं हो पा रहा। माईक्रो नयूटन एनालाईसिस प्रयोगशााला ग्वालियर संभाग मुख्यालय पर है। इस मिट्टी परीक्षण में जिंक, कॉपर, मैग्नीज और आयरन की जांच होती है। संभावना जताई जा रही है कि जिले की मृदा में उक्त सूक्ष्म तत्व भी घट रहे हैं। उक्त मिट्टी परीक्षण के लिए करीब 15 लाख की मशीन की जरूरत होती है जो सिर्फ ग्वालियर में ही है। ज्ञात रहे मिट्टी परीक्षण के लिए किसानों को नाम मात्रा का शुल्क अदा करना पड़ता है। अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के किसानों से प्रति नमूला 3 रुपए और सामान्य सहित ओबीसी वर्ग के किसानों के लिए 5 रुपए निर्धारित है।

मिट्टी परीक्षण के तरीके

परीक्षण हेतु खेत से मिट्टी घासफूस साफ की जाती है। खेत में 5-6 स्थानों से वी आकार के गड्ढे से परीक्षण के लिए 500 ग्राम मिट्टी लेते हैं। परीक्षण के लिए मिट्टी खेत की मेढ़ और छायादार पेड़ के नीचे से नहीं ली जाती। प्रयोगशाला में रासायनिक और मशीनों से परीक्षण कर मिट्टी में पोषक तत्वों की जांच की जाती है।

क्या कहते हैं अधिकारी

प्रयोगशाला में परीक्षण के लिए आ रहे मिट्टी के नमूनों की जांच करने पर अधिकतर पोटाश की कमी पाई जा रही है। जांच के आंकड़ों के आधार पर मृदा में 90 फीसदी तक पोटाश की कमी आ रही है।राशायनिक के अलावा गोवर खाद, केंचुआ आदि जैविक खादों के उपयोग से पोटाश की कमी पूरी हो सकती है।

भगवतीशरण जोशी, प्रयोगशाला प्रभारी, मिट्टी परीक्षण प्रयोग शाला नानाखेड़ी कृषि उपज मंडी गुना

पोटाश की पूर्ति के लिए एनपीके खाद करीब 4 हजार टन किसानांें को उपलब्ध करा रहे हैं। मिट्टी परीक्षण कराकर किसानों को पोषक तत्वों की पूर्ति की सलाह दी जा रही है ताकि किसान अच्छा उत्पादन प्राप्त कर सकें

गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

मुंग की खेती

मुंग की खेती

भूमि की तैयारी

मूंग की खेती के लिए दोमट एवं बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम होती हैl भूमि में उचित जल निकासी कीउचित व्यवस्था होनी चहियेl पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल या डिस्क हैरो चलाकर करनी चाहिए तथा फिर एक क्रॉस जुताई हैरो से एवं एक जुताई कल्टीवेटर से कर पाटा लगाकर भूमि समतल कर देनी चाहिएl

बीज की बुवाई

मूंग की बुवाई 15 जुलाई तक कर देनी चाहिएl देरीसे वर्षा होने पर शीघ्र पकने वाली किस्म की वुबाई 30 जुलाई तक की जा सकती हैl स्वस्थ एवं अच्छी गुणवता वाला तथा उपचरित बीज बुवाई के काम लेने चाहिएl वुबाई कतरों में करनी चाहिए l कतरों के बीच दूरी 45 से.मी. तथा पौधों से पौधों की दूरी 10 से.मी. उचित है l

खाद एवं उर्वरक

दलहन फसल होने के कारण मूंग को कम नाइट्रोजन कीआवश्यकता होती हैl मूंग के लिए 20 किलो नाइट्रोजन तथा 40  किलो फास्फोरस प्रति हैक्टेयर की आवश्कता होती है l नाइट्रोजन एवं फास्पोरस की मात्रा 87 किलो ग्राम डी.ए.पी. एवं10 किलो ग्राम यूरिया के द्वारा  बुवाई के समय देनी चाहिएl मूंग की खेती हेतु खेत में दो तीन वर्षों में कम एक बार  5 से 10 टन गोबर या कम्पोस्ट खाद देनी चाहिएl इसके अतिरिक्त 600 ग्राम राइज़ोबियम कल्चर को एक लीटर पानी में 250 ग्राम गुड़ के साथ गर्म कर ठंडा होने पर बीज को उपचारित कर छाया में सुखा लेना चाहिए तथा बुवाई कर देनी चाहिएl खाद एवं उर्वरकों के प्रयोग से पहले मिटटी की जाँच कर लेनी चहियेl

खरपतवार नियंत्रण

फसल की बुवाई के एक या दो दिन पश्चात तक पेन्डीमेथलिन (स्टोम्प )की बाजार में उपलब्ध 3.30 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए फसल जब 25 -30 दिन की हो जाये तो एक गुड़ाई कस्सी से कर देनी चहिये या  इमेंजीथाइपर(परसूट) की 750 मी. ली . मात्रा प्रति हेक्टयर की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर देना चाहिए।

रोग तथा किट नियंत्रण
दीमक दीमक फसल के पौधों की जड़ो को खाकर नुकसान पहुंचती हैl बुवाई से पहले अंतिम जुताई के समय खेत में क्यूनालफोस 1.5 प्रतिशत या क्लोरोपैरिफॉस पॉउडर की 20-25 किलो ग्राम मात्रा प्रति हेक्टयर की दर से मिटटी में मिला देनी चाहिए  बोनेके समय बीज को क्लोरोपैरिफॉस कीटनाशक की 2 मि.ली. मात्रा को प्रति किलो ग्राम बीज दर से उपचरित कर बोना चाहिए I
कातराकातरा का प्रकोप बिशेष रूप से दलहनी फसलों में बहुत होता है l इस किट की लट पौधों को आरम्भिक अवस्था में काटकर बहुत नुकसान पहुंचती है l इसके  नियंत्रण हेतु खेत के आस पास कचरा नहीं होना चाहिये l कतरे की लटों पर क्यूनालफोस1 .5  प्रतिशत पॉउडर की 20-25 किलो ग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव कर देना चाहिये I
मोयला,सफ़ेद मक्खी एवं हरा तेलाये सभी कीट मूंग की फसल को बहुत नुकसान पहुँचाते हैंI इनकी रोकथाम के किये मोनोक्रोटोफास 36 डब्ल्यू ए.सी या  मिथाइल डिमेटान 25 ई.सी. 1.25 लीटर को प्रति हेक्टेयरकी दर से छिड़काव करना चाहिए आवश्यकतानुसार दोबारा चिकाव किया जा सकता है lपती बीटलइस कीट के नियंत्रण के लिए क्यूंनफास 1.5 प्रतिशत पॉउडर की 20-25 किलो ग्राम का प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव कर देना चाहिए l

फली छेदकफली छेदक को नियंत्रित  करने के लिए मोनोक्रोटोफास आधा लीटर या मैलाथियोन या क्युनालफ़ांस 1.5 प्रतिशत पॉउडर की 20-25 किलोहेक्टयर की दर से छिड़काव /भुरकाव करनी चहिये। आवश्यकता होने पर 15 दिन के अंदर दोबारा छिड़काव /भुरकाव  किया जा सकता है।रस चूसक कीड़ेमूंग की पतियों ,तनो एवं फलियों का रस चूसकर अनेक प्रकार के कीड़े फसल को हानि पहुंचाते हैंIइन कीड़ों की रोकथाम हेतु एमिडाक्लोप्रिड 200 एस एल का 500 मी.ली. मात्रा का प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिएI आवश्कता होने पर दूसरा छिड़काव 15  दिन  के अंतराल पर करें I
चीती जीवाणु रोगइस रोग के लक्षण पत्तियों,तने एवं फलियों पर छोटे गहरे भूरे धब्बे  के रूप में दिखाई देते है I इस रोग की रोकथाम हेतु एग्रीमाइसीन 200 ग्रामया स्टेप्टोसाईक्लीन 50 ग्राम को 500 लीटर में घोल बनाकर प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए Iपीत शिरा मोजेकइस रोग के लक्षण फसल की पतियों पर एक महीने के अंतर्गत दिखाई देने लगते हैI फैले हुए पीले धब्बो के रूप  में रोग दिखाई देता हैI यह रोग एकमक्खी के कारण फैलता हैI इसके नियंत्रण हेतु मिथाइल दिमेटान 0.25 प्रतिशत व मैलाथियोन 0.1प्रतिशत मात्रा को मिलकर प्रति हेक्टयर की दर से 10 दिनों के अंतराल पर घोल बनाकर छिड़काव करना काफी प्रभावी  होता है I तना झुलसा रोग इस रोग की रोकथाम हेतु 2 ग्राम मैकोजेब से प्रति किलो बीज दर से उपचारित करके बुवाई करनी चहिये बुवाई के 30-35 दिन बाद 2 किलो मैकोजेब प्रति हेक्टयर की दर से 500 लीटर पानी में घोलबनाकर छिड़काव करना चहिये ।पीलिया रोगइस रोग के कारण फसल की पत्तियों में पीलापन दिखाई देता है। इस रोग के नियंत्रण हेतू गंधक का तेजाब या 0.5 प्रतिशत फैरस सल्फेट का छिड़काव करना चहिये Iसरकोस्पोरा  पती धब्बाइस रोग के कारण पौधों के ऊपर छोटे गोल बैगनी लाल रंग के धब्बे दिखाई देते हैं I पौधों की पत्तियां,जड़ें व अन्य भाग भी सुखने लगते हैंI इस के नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम की1ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चहिये बीज को 3 ग्राम केप्टान या २ग्राम कार्बेंडोजिम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बोना चाइयेकिंकल विषाणु रोगइस रोग के कारण पोधे की पत्तियां सिकुड़ कर इकट्ठी हो जाती है तथा पौधो पर फलियां बहुत ही कम बनती हैं। इसकी रोकथाम हेतु डाइमिथोएट 30 ई.सी. आधा लीटर अथवा मिथाइल डीमेंटन 25 ई.सी.750 मि.ली.प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करना चाहिए l ज़रूरत पड़ने पर 15 दिन बाद दोबारा छिड़काव करना चहिये Iजीवाणु पती धब्बा, फफुंदी पती धब्बा  और विषाणुरोगइन रोगो की रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम १ ग्राम , सरेप्टोसाइलिन की 0.1 ग्राम एवं मिथाइल डेमेटान  25 ई .सी.की एक मिली.मात्रा कोप्रति लीटर पानी में एक साथ मिलाकर पर्णीय छिड़काव करना चहिये lफसल चक्रअच्छी पैदावार प्राप्त करने एवं भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने हेतु उचित फसल चक्र आवश्यक है l वर्षा आधारित खेती के लिए मूंग -बाजरा तथा सिंचित क्षेत्रों में मूंग-गेहू/जीरा/सरसो फसल चक्र अपनाना चहिये l

बीज उत्पादन
मूंग के बीज उत्पादन हेतु ऐसे खेत चुनने चहिये जिनमें पिछले मौसम में मूंग अन्हिं उगाया गया हो l मूंग के लिए निकटवर्ती खेतो से संदुषण को रोकने के लिए फसल के चारो तरफ 10 मीटर की दुरी तक मूंग का दूसराखेत नहीं होना चहिये l भूमि की अच्छी तैयारी,उचित खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग,खरपत वार, कीड़े एवं विमारियों के नियंत्रण के साथ साथ समय समय पर अवांछनीय पौधों को निकालते रहना चहिय तथा फसल पकने पर लाटे को अलग सुखाकर दाना निकाल कर ग्रेडिंग कर लेना चहियेI बीज को साफ करके उपचारित कर सूखे स्थान में रख देना चाहिये I इस प्रकार पैदा किये गये बीज को अगले वर्ष बुवाई के लिए प्रयोग किया जा सकता है Iकटाई एवं गहाईमूंग की फलियों जब काली परने लगे तथा सुख जाये तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए I अधिक सूखने पर फलियों चिटकने का डर रहता है I फलियों से बीज कोथ्रेसर द्वारा या डंडे द्वारा अलग कर लिए जाता है I

उपज एवं आर्थिक लाभ

उचित विधिओं के प्रयोग द्वारा खेती करने पर मूंग  की 7 -8  कुंतल  प्रति हेक्टयर वर्षा आधारित फसल से उपज प्राप्त हो जाती है I एक हेक्टयर क्षेत्र में मूंग की खेती करने के लिए 18 - 20 हज़ाररुपए का खर्च आ जाता है I  मूंग का भाव 40 रु . प्रति किलो होने पर 12000 /- से 14000 रूपयेप्रति हेक्टयर शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है I

मिटटी जनित रोग मिटाने वाली फसल-"ज्वार"

मिटटी जनित रोग मिटाने वाली फसल-"ज्वार"

जुवार किसी समय मालवा व निमाड़ क्षेत्र की प्रमुख फसल थी। आदिवासी क्षेत्रों में इसे जुवार माता के नाम से जाना जाता था। मालवा व निमाड़ को जुवार-कपास क्षेत्र (कॉटन-ज्वार झोन) के नाम से संबोधित किया जाता था। परंतु इसका क्षेत्रफल नगण्य हो गया है। अब यह फसल गरीबों के निर्वाह का साधन न रहकर अमीरों के शौक में शामिल हो गई है। जुवार खासकर मोटे दाने वाली जुवार का भाव आजकल खेरची में 1200 से 1500 रुपए क्विं. के बीच चल रहा है।5-6दशक पहले के कृषि वैज्ञानिक और अनुभवी कृषक जानते हैं कि जुवारNDउगाए जाने वाले क्षेत्रों के खेतों की मिट्टी में अब की अपेक्षा भूमिजनित रोग बहुत कम होते थे। जुवार को अकेली (एकल फसल) या कपास, तुवर, मूँग, उड़द, मूँगफली के साथ विभिन्न कतार अनुपात में मुख्य या सहायक अंतरवर्ती फसल के रूप में शामिल करके बोया जाता रहा था।जुवार की देशी किस्मों के पौधे लंबे, अधिकऊँचाई वाले, गोल या अंडाकार गूज नेक (बगुले या हंस की गर्दन के समान झुके हुए)भुट्टों वाले होते थे। इनमें दाने बिलकुलसटे हुए लगते थे। जुवार की उज्जैन 3, उज्जैन 6, पीला आँवला, लवकुश, विदिशा 60-1 मुख्य प्रचलित किस्में थीं। इनकी उपज 12 से 16 क्विंटल दाना और 30 से 40 क्विंटल कड़वी (पशु चारा) प्रति एकड़ तक मिलजाती थी। इनका दाना मीठा, स्वादिष्ट होता था।चूँकि ये किस्में कम पानी व अपेक्षाकृत हल्की जमीनों में हो जाने के कारण आदिवासी क्षेत्रों की प्रमुख फसल थी। ये उनके जीवन निर्वाह का प्रमुख साधन था। साथ ही इससे उनके पशुओं को चारा भी मिल जाता था। इनके झुके हुए ठोस भुटटों पर पक्षियों के बैठने की जगह न होने के कारण नुकसान कम होता था।इसके बाद आई जुवार की खुले भुट्टे वाली अधिक उपज देने वाली संकर किस्में।जुवार के नगण्य क्षेत्रफल और अच्छे भावों को दृष्टिगत रखते हुए अगर कुछ किसान मिलकर अपने पास-पास लगे हुए खेतोंमें इस फसल को उगाकर अधिक लाभ उठा सकते हैं। क्योंकि इसके दाने और कड़वी दोनों ही उचित मूल्य पर बिक सकते हैं      इनके आने से जुवार की विपुल पैदावार मिलने, बाजार में माँग से अधिक पूर्ति के कारण भाव गिरकर 70 रु. प्रति क्विंटल तक आ गए। सरकार द्वारा दिए गए समर्थित मूल्य भी पूरी तरह खरीदी न होने के कारण सहारा नदे सके। इसी समय आई सोयाबीन। इसकी अधिक उपज, नई फसल होने के कारण कीड़ों व रोगों का कम प्रकोप, विदेशी मुद्रा कमाने वाली फसल होने के कारण सरकार का पूर्ण समर्थन, पर्याप्त अनुसंधान इन सब कारणों से जुवारकी जमीन छिन गई।इन 50-60 वर्षों में सोयाबीन ने सरकार व कृषक को पैसा तो दिलवाया परंतु सुनियोजितखेती के तरीकों व सिद्धांतों के अभाव में अब मिट्टी की उर्वरता व स्वास्थ्य पर इसके दुःष्प्रभाव परिलक्षित होने लगे हैं। अनेक खेतों में राइजोक्टोनिया, फ्यूजेरियम, स्क्लेरोशियम प्रजाति के पौध रोग व पौध अवशेषों में सोयाबीन की गर्डल बीटल आर्मी वर्म जैसे कीड़ों ने अपना स्थाई निवास बना लिया है। ये रोग व कीड़े बहुआश्रयी होने के कारण अनेक वर्ग की फसलों और सब्जियों को नुकसान पहुँचातेहैं। आपने खेत में फसल या सब्जियाँ लगाई नहीं कि इनकी पहले से तैयार फौज टूट पड़ती है उन पर।जुवार के नगण्य क्षेत्रफल और अच्छे भावोंको दृष्टिगत रखते हुए अगर कुछ किसान मिलकर अपने पास-पास लगे हुए खेतों में इस फसल को उगाकर अधिक लाभ उठा सकते हैं। क्योंकि इसके दाने और कड़वी दोनों ही उचित मूल्य पर बिक सकते हैं। इसके अलावा यदि आपके खेत की मिट्टी में उपरोक्त रोग लगते हैं तो जुवार को फसल क्रम में शामिल करके उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है।मध्यप्रदेश के लिए जुवार की समर्थित संकरकिस्में सीएसएच5, सीएसएच9, सीएसएच-14, सीएसएच-18 है। इनके अलावा विपुल उत्पादनदेने वाली उन्नत किस्में (जिनका बीज हर साल नया नहीं बदलना पड़ता है) हैं- जवाहर जुवार 741, जवाहर जुवार 938, जवाहर जुवार 1041 एसपीवी 1022 और एएसआर-1 (यहअगिया प्रभावित क्षेत्रों के लिए समर्थित हैं)। इनके बीजों के लिए जुवार अनुसंधान परियोजना, कृषि महाविद्यालय इंदौर से संपर्क कर सकते हैं। एक हैक्टेयर (ढाई एकड़) में बोने के लिए 10-12 किलोग्राम बीज लगता है।बोने के पहले इसे 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडि (प्रोटेक्ट) नामक जैविक फफूँदनाशक से प्रति एक किलोग्राम बीज के साथ मिलाकर उपचारित कर लें। इसे 45 सेमी दूरी पर कतारों में बोएँ। बोते समय ही 40किग्रा नत्रजन, 40 किग्रा स्फुर व 40 किग्रा पोटाश मिलाकर दुफन-तिफन या बीज-उर्वरक बोवाई यंत्र से बीज की कतारोंके नीचे बोएँ। बीज अंकुरित होने व पौधे जमजाने पर कतारों के अंदर दो पौधों के बीच 10-12 सेमी की दूरी रखकर बीच के कमजोर पौधे निकाल दें। 40 किग्रा नत्रजन की दूसरी मात्रा बोने के 25-30 दिन बाद खड़ी फसल की कतारों के बीच यूरिया के रूप में डालकर गुड़ाई द्वारा मिला दें।खरपतवार नियंत्रण के लिए डोरा चलाएँ :इसेसोयाबीन तुवर, कपास आदि की मुख्य फसल के साथ सहायक अंतरवर्ती फसल के रूप में भी लिया जा सकता है। दलहन फसलों में कतार अनुपात 4:2 या 6:2 उपयुक्त पाया गया है। यानी प्रत्येक 4 या 6 कतार तुवर के बाद दो कतारें जुवार की बोएँ। जुवार की संकर किस्मों से 25-30 क्विंटल दाना और 80-90 क्विंटल चारा तथा उन्नत किस्मों से 22-25 क्विंटल दाना व 100-120 क्विंटल चारा मिल जाता है।

अल्पकालीन कृषि संचालन के लिए ऋण सुविधाएं

अल्पकालीन कृषि संचालन के लिए ऋण सुविधाएं

किसान क्रेडिट कार्ड योजना

फसल ऋण आम तौर पर किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी)के माध्यम से बैंकों द्वारा वितरित किये जाते हैं. किसान क्रेडिट कार्ड योजना पूरे देश में लागू है और वाणिज्यिक बैंकों, सहकारी बैंकों औरक्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा कार्यान्वितकिया जाता है. छोटे किसान, सीमांत किसान, हिस्सेदार , मौखिक पट्टेदार और किरायेदार किसान सहित सभी किसान को किसान क्रेडिट कार्ड जारी करने के लिए प्रावधान है I केसीसी धारक दुर्घटना में मृत्यु / स्थायी विकलांगता व व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना के अंतर्गत आतेहैं I बैंक किसान की खेती के लिए उपलब्ध जमीन औरकिसान के क्रेडिट इतिहास व् जिला स्तरीय तकनीकी समिति द्वारा तय वित्त की मात्रा के आधार पर किसान की ऋण के लिये योग्यता का आकलन करता है I केसीसी के दायरे में हाल ही में अल्पावधी के ऋण और खपत जरूरतों को भी शामिल करने के लिए व्यापक आधार दिया गया है. सरकार ने बैंकों को किसान क्रेडिट कार्ड को एक स्मार्ट कार्ड सह डेबिट कार्ड में बदलने की सलाह दी I

बुधवार, 23 दिसंबर 2020

अरहर की खेती

अरहर  की खेती :- 
परिचय :-

अरहर की खेती अकेले या दूसरी फसलो के साथ सहफसली खेती के रूप में भी कर सकते है, सहफसली खेती के रूप में ज्यादातर ज्वार  बाजरा मक्का सोयाबीन की खेती की जा सकती हैI

अरहर की उन्नतशील प्रजातियाँ क्या होती है ?

अरहर की खेती के लिए दो प्रकार की उन्नतशील प्रजातियाँ उगाई  जाती है पहली अगेती प्रजातियाँ  होती है, जिसमे उन्नत प्रजातियाँ है पारस, टाइप २१, पूसा ९९२, उपास १२०, दूसरी पछेती या देर से पकने वाली प्रजातियाँ है बहार है, अमर है, पूसा ९ है, नरेन्द्र अरहर १ है आजाद अरहर १ ,मालवीय बहार, मालवीय चमत्कार जिनको देर से पकने वाली प्रजातियाँ के रूप से जानते है

अरहर की खेती के लिए जलवायु और भूमि किस प्रकार  की होनी चाहिए?

अरहर की खेती के लिए समशीतोसन जलवायु के साथ साथ वुवाई के समय ३० डिग्री सेंटीग्रे तापमान होना अति आवश्यक है अरहर की अच्छी उपज के लिए दोमट या बलुई दोमट भूमि अच्छी मानी  जाती है

 अरहर की फसल के लिए खेत की तैयारी कैसे करे?

खेत की पहली जुताई मिटटी पलटने वाले से करने की जरूरत होती है, उसके बाद दो तीन जुताई कल्टीवेटर से करना अति आवश्यक है, इसके बाद आखिरी जुताई के बाद 200-300 कुंतल गोबर की खाद मिलाकर पाटा लगाना अति आवश्यक होता हैI

अरहर की फसल के लिए वुवाई का कुछ उपयुक्त समय भी होता है ?

जल्दी पकने वाली प्रजातियाँ है उनको जून के प्रथम सप्ताह में वुवाई करना वहुत  ही उचित साथ ही देर से पकने वाली प्रजातियाँ को जुलाई के प्रथम सप्ताह में वुवाई करे तो हम को वहुत अच्छी पैदावार मिलती है I

अरहर की बीज की मात्रा क्या हो और वुवाई किस प्रकार की जाए?

अरहर की जल्दी पकने  वाली प्रजातियाँ है, उनमे १५  से २० किलो ग्राम बीज एक हेक्टर के लिए प्रयाप्त होता है ,इसी प्रकार देर से पकने  वाली प्रजातियों के लिए १२ से १५ किलो ग्राम बीज एक हेक्टर के लिए प्रयाप्त होता है अरहर के बीज की वुवाई लाइनों में हल के पीछे करनी चाहिए लाइन से लाइन  की दुरी जल्दी पकने वाली प्रजातियों के लिए ४५ सेंटी मीटर पौध से पौध की दुरी २० सेंटी मीटर रखते है इसी प्रकार देर  से पकने वाली प्रजातियाँ उसमे लाइन से लाइन की दुरी ६० सेंटी मीटर कर सकते है ,और पौध से पौध की दुरी ३० सेंटी मीटर रख सकते है

अरहर की बीज वुवाई से पहले किस प्रकार से शोधित करे?

अरहर में वुवाई से पहले बीज को २ ग्राम थीरम या १ग्राम कार्बेन्दजिन से १ किलो ग्राम बीज को शोधित कर लेना चाहिए इसके बाद वुवाई से पहले राईजोवियम कल्चर के एक पैकेट को १० किलो ग्राम बीज को शोधित करके वुवाई कर देनी चाहिए जिस खेत में पहली वार अरहर की वुवाई की जा रही हो वहा पर कल्चर का प्रयोग बहुत आवश्यक  है

अरहर की फसल में सिचाई कब करनी चाहिए?

अरहर किअगेति खेती करने पर अक्टूबर के महीने में पछेती खेती दिसम्बर व जनवरी के माहीने में आवश्यकता अनुसार जरूरत पड़ने पर सिचाई करना चाहिए I

अरहर की फसल खाद एव उर्वरक का प्रयोग कितनी मात्रा में और कब किया जाना चाहिए?

मृदा परीक्षण कराके ही खाद एवं उर्वरक के बारे में सोचना चाहिए, खाद का प्रयोग खेत की तैयारी के समय कर सकते है, उर्वरक 15 किलो नाइट्रोजन 40 किलो ग्राम फास्फोरस तथा 20 किलो ग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रयोग किया जाए तो वहुत अच्छा रहता है, नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस पोटाश की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय प्रयोग करना चाहिए शेष आधी नाइट्रोजन की मात्रा वुवाई के 25-30 दिन बाद खड़ी फसल में टापड्रेसिंग के रूप में करे तो पैदावार अच्छी होती है

अरहर की फसल को रोगों से वचाव के लिए क्या करना चाहिए ?

इसमें मुख्य तरह उकुटहा वा वंजा रोग लगता है ,इस रोग उपचार के लिए बीज को ३ ग्राम थीरम व १ ग्राम काराब्न्दजिन  एक किलो ग्राम बीज को वुवाई से पहले शोधित करके वुवाई करनी चाहिए इससे उकता रोग से छुटकारा मिल सकता हैI

अरहर की फसल को कीटो से वचाव के लिए क्या करना चाहिए ?

अरहर में मुख्यतया फली वेधक पत्ती लपेटक अरहर की फल इस फसल को प्रभावित करती है ,इसके उपचार के लिए मोनोक्रोटोफास ३६ ई सी १००० लीटर पानी में घोल ले और छिडकाव करे तो इस रोग से छुटकारा मिल सकता है

अरहर की फसल की कटाई कब की जानी चाहिए?

अरहर की जल्दी पकने वाली प्रजातियाँ की कटाई वुवाई के १४० दिन से १५० दिन अथार्त १५ नवम्बर से १५ जनवरी तक की जाती है देर से पकने वाली प्रजातियाँ जो किसान भाई उगाते है ,उस फसल की कटाई २६०   से २७० दिन अथार्त  १५ मार्च से १५ अप्रैल की वीच कटाई की जाती है I

अरहर की फसल की उपज प्रति हेक्टर कितनी प्राप्त होती है?

अरहर की जल्दी पकने वाली प्रजातियाँ की उपज १८षे२० कुंतल ले सकते है इसी तरीके से जो देर से पकने वाली प्रजातियाँ है उस फसल से २५ से ३० कुंतल उपज प्राप्त कर सकते है I

अगर आपको ऊपर दी गयी जानकारी अच्छी लगे तो अपने दूसरे किसान भाइयों से भी शेयर करे ।

टपक सिंचाई द्वारा रासायनिक खादों का प्रयोग

टपक सिंचाई द्वारा रासायनिक खादों का प्रयोग
परिचय
टपक या बूंद-बूंद सिंचाई एक ऐसी सिंचाई विधि है जिसमें पानी थोड़ी-थोड़ी मात्रा में, कम अन्तराल पर सीधा पौधों की जड़ों तक पहुँचाया जाता है| टपक सिंचाई के बढ़ते उपयोग के साथ यह जानना जरुरी हो जाता है कि कौन-कौन सी रासायनिक खादों का प्रयोग किस प्रकार इस विधि द्वारा किया जाना चाहिए|
टपक सिंचाई में जिस तरह पौधों को ड्रिपर्स के जरिये पानी दिया जाता है, उसी तरह रासायनिक खाद की कम-कम मात्रा को (10-12 बार) पानी में घोल कर वेचुरी या उर्वरक टैंक/पम्प की सहायता से ड्रिपर्स द्वारा सीधा पौधों की जड़ों तक पहुँचाया जाता है| ऐसा करने से महंगे भाव वाले खाद का नुकसान नहीं हो पाटा यानि खाद के खर्चे में बचत होती है| इस विधि द्वारा जहाँ फसल को नियमित रूप से आवश्यक मात्रा में खाद मिलती है, वहीं पौधों के स्वास्थ्य विकास के साथ-साथ पैदवार में भी सहरानीय बढ़ोतरी होती है|
टपक सिंचाई योग्य उर्वरक
टपक सिंचाई द्वारा प्रयोग किये जाने वाला उर्वरक पानी में पूर्णतः घुलनशील होना चाहिये व इसकी टपक सिंचाई यंत्र से कोई भी रासायनिक क्रिया नहीं होनी चाहिए| टपक सिंचाई द्वारा पानी में घुलनशील व तरल उर्वरकों का प्रयोग अधिक लाभकारी रहता है|
1) नाइट्रोजनयुक्त उर्वरक: अमोनियम सल्फेट, अमोनियम क्लोराइड, कैल्शियम, नाइट्रेट, डाईअमोनियम फास्फेट, पोटाशियम नाइट्रेट, यूरिया आदि नाइट्रोजनयुक्त उर्वरक हैं जो पानी में आसानी से घुल जाते हैं| पौधे नाइट्रोजन को खासकर नाइट्रेट रूप में चूसते हैं और पोषण प्राप्त करते हैं| अमोनियम सल्फेट तथा अमोनियम क्लोराइड में से नाइट्रेट का रूपान्तर अत्यंत तीव्रता से होता है, इसलिए ये फसलों के लिए ज्यादा अनुकूल रहता अहि| नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों में ‘यूरिया’ का प्रयोग श्रेष्ठ सिद्ध हुआ है| यूरिया पानी में पुर्णतः घुलनशील है तथा इसमें समाविष्ट नाइट्रोजन का 90-96% तक का हिस्सा फसल ग्रहण कर लेती है| परन्तु दूसरी ओर एक कठिनाई यह है कि अगर ड्रिपर्स या लेटरल्स में युरियायुक्त पानी का थोड़ा भी हिस्सा रह जाये तो वहीं सूक्ष्म कीटाणु पैदा होने लगते हैं जिससे ड्रिपर्स के छिद्र भर जाते हैं| इसके उपचार हेतु खाद देने के तुरंत बाद, कम से कम 30 से 45 मिनट तक पानी चालू रखना चहिये| इससे यूरिया युक्त पानी के ठरहने का सवाल रहेगा ही नहीं|
2) फास्फोरसयुक्त खाद: फास्फोरसयुक्त खाद मुख्यतः चार प्रकार की होती है: 1) सुपरफास्फेट 2) डी.ए.पी 3)  बोनमील 4) रॉकफास्फेट
इनमें  से बोनमील व रॉकफास्फेट पानी में घुलनशील नहीं है अतः इनका प्रयोग टपक सिंचाई में संभव नहीं डी.ए.पी पानी में घुल जाता है फिर भी इसके उपयोग में काफी सावधानी रखनी पड़ती है| सुपरफास्फेट उर्वरक का उपयोग टपक सिंचाई में किया जा सकता है परन्तु सुपरफास्फेट की परेशानी यह है कि ये पानी में अत्यंत धीमे-धीमे घुलता है इसलिए टपक सिंचाई देते समय काफी मुशिकल रहती है| डी.ए.पी व सुपरफास्फेट को बाहर ही पानी में घोलकर उर्वरक टैंक इमं डालें ताकि न घुलने वाले मोटे कण बाहर ही छन जाएं | टपक सिंचाई फस्फोरिक एसिड का भी प्रयोग किया जा सकता है| मोनोअमोनियम फास्फेट पानी में पूर्णतः घुलनशील है| इसका प्रयोग टपक सिंचाई द्वारा किया जा सकता है|
3)  पोटाशयुक्त खाद: बाजार में उपलब्ध म्यूरेट ऑफ़ पोटाश तथा पोटाशियम सल्फेट खाद पानी में पुर्णतः घुलनशील है| इसलिए इनका इस्तेमाल टपक सिंचाई में आसानी से किया जा सकता है|
4)  घुलनशील उर्वरक: फर्टिगेशन में उपयोग होने वाले उर्वरक
वर्तमान में फर्टिलाइजर कंट्रोल आर्डर में पुर्णतः घुलनशील उर्वरकों के 12 ग्रेड सूचीबद्ध किये गये हैं:
उर्वरक अनुकूलता
जब फर्टिगेशन के लिए उर्वरकों को मिलाकर मिश्रित घोल तैयार किया जाता है उस समय उर्वरक अनुकूलता का विशेष ध्यान रखना चाहिए| उदाहरण के लिए जब अमोनियम सल्फेट को पोटाशियम क्लोराइड के साथ मिलाया जाता है तो पोटाशियम सल्फेट बनता है जो कि पानी में पूर्णरूप से घुलनशील नहीं है| इस कारण अमोनियम सल्फेट तथा पोटाशियम क्लोराइड के घोल को एक साथ फर्टिगेशन के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता है| इसी प्रकार कैल्शियम नाइट्रेट एवं फास्फेट/सल्फेट, मैग्नीशियम सल्फेट एवं डाइ और मोनो अमोनियम फास्फेट, फास्फोरिक अम्ल एवं लोहा/जस्ता/तम्बा/मैगनीज सल्फेट का एक साथ उपयोग भी वर्जित है|
क्रम सं
उर्वरक का नाम
पोषक तत्वों की मात्रा 
 
3) तरल उर्वरक: घुलनशील उर्वरकों के अतिरिक्त बाजार में कुछ तरल उर्वरक भी उपलब्ध हैं, जिनका प्रयोग टपक सिंचाई द्वारा किया जा सकता है| तरल फोस्फोरस युक्त अमोनियम पोलिफास्फेट (16:32:0) भी उपलब्ध है| इसका विशेष लाभ यह है इसके प्रयोग के 2-3 साल बाद भी फास्फोरस पौधे को उपलब्ध रहता है|
पौधों को संतुलित मात्रा में विभिन्न पोषक तत्व उपलब्ध करवाने के लिए मिश्रित तरल उर्वरकों को आवश्यकता रहती है|
टपक सिंचाई द्वारा उर्वरक प्रयोग विधि
टपक सिंचाई द्वारा उर्वरकों को मुख्यतः तीन विधियों द्वारा दिया जा सकता है:
उर्वरक टैंक: उर्वरक टैंक दो नालियों द्वारा सीधा में लाइन से जुडा होता है| एक नाली से पानी टैंक के भीतर तथा दूसरी नाली से खाद वाला पानी बाहर आता है| उर्वरक टैंक से पहले पानी हाइड्रोसाइक्लोन व बाद में मैश फिल्टर (स्क्रीन फिल्टर) से छनकर आगे जाता है ताकि उर्वरक के कुछ कण यदि रह जाएँ तो वह भी यहीं छन जाएं| टैंक में डालने से पहले, खाद को बाहर ही पानी में घोल लिया जाता है ताकि मोटे कण आदि बाहर ही छन जाएँ| फिर खाद वाला पानी डालकर टैंक को अच्छी तरह बंद कर दिया जाता है| फिर कुछ समय तक सिंचाई पानी को सीधा जाने दिया जाता है, फिर भीरत रही नाली को रेगुलेटर खोल दिया जाता है, ताकि खाद वाला पानी नालियों से होकर ड्रिपर्स द्वारा पौधे तक पहुँच सके| खाद देने के पश्चात् कुछ समय के लिए पानी छोड़ना जरुरी है ताकि नालियाँ व ड्रिपर्स अच्छी तरह साफ हो जाएँ|
उर्वरक पम्प: इस विधि में उर्वरक को पम्प की सहायता से फलों तक पहुँचाया जाता है|
वेंचुरी: खाद के घोल को वेंचुरी के मुख की ओर दाखिल किया जाता है पाने के दबाब के कारण ये घोल वेंचुरी खिंचते चला जाता है| फिर ये पानी प्रवास में मिलकर बहने लगता है| खाद का घोल वेंचुरी से जब गुजरता है तो दबाब अधिक होता है, जबकि वेंचुरी के अंतिम सिरे से होकर बाहर निकलता है तो दबाव धीमा पड़ जाता है| इस दबाव अंतर के कारण का अंतर सामान्यतः 0.8 कि. प्रति घन सेंटीमीटर से लेकर 1.5 कि. प्रति घन सेंटीमीटर के बीच होना चाहिए|
टपक सिंचाई द्वारा दिए गए रासायनिक उर्वरक के लाभ
उर्वरक दिए जाने वाले खर्चे में कमी
उर्वरकों का भूमि में एक समान वितरण
उर्वरकों की उपयोग क्षमता में वृद्धि
पौधे की आवश्यकता अनुसार सही समय पर उर्वरकों की उपलब्धि|
अधिक पैदावार व फलों की गुणवत्ता में वृद्धि
उर्वरकों की खपत में बचत
ऐसे इलाकों में, जहाँ वर्षा जरूरत से कम होती है, वहां टपक सिंचाई ही एक मात्र विधि है, जिससे उर्वरकों को सीधा पौधे की जड़ तक पहुँचाया जा सकता है|
इस दिशा में हुए अनुसन्धान ये स्पष्ट बताते हैं कि टपक सिंचाई द्वारा दिए गए उर्वरक जहाँ पैदावार व फसलों की गुणवत्ता को बढ़ाते हैं वहीं उर्वरकों की खपत में भी कमी करते हैं|

रविवार, 20 दिसंबर 2020

गुलाब के फूलों की खेती

गुलाब के फूलों की खेती 

परिचय

गुलाब की खेती बहुत पहले से पूरी दुनिया में की जाती हैI इसकी खेती पूरे भारतवर्ष में व्यवसायिक रूप से की जाती हैI गुलाब के फूल डाली सहित या कट फ्लावर तथा पंखुड़ी फ्लावर दोनों तरह के बाजार में व्यापारिक रूप से पाये जाते हैI गुलाब की खेती देश व् विदेश निर्यात करने के लिए दोनों ही रूप में बहुत महत्वपूर्ण हैI गुलाब को कट फ्लावर, गुलाब जल, गुलाब तेल, गुलकंद आदि के लिए उगाया जाता हैI गुलाब की खेती मुख्यतः कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्रा, बिहार, पश्चिम बंगाल ,गुजरात, हरियाणा, पंजाब, जम्मू एवं कश्मीर, मध्य प्रदेश, आंध्रा प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में अधिक की जाती हैI

गुलाब की खेती के लिए किस प्रकार की जलवायु और भूमि की आवश्यकता होती है?

गुलाब की खेती उत्तर एवं दक्षिण भारत के मैदानी एवं पहाड़ी क्षेत्रों में जाड़े के दिनों में की जाती हैI दिन का तापमान 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तथा रात का तापमान 12 से 14 डिग्री सेंटीग्रेट उत्तम माना जाता हैI गुलाब की खेती हेतु दोमट मिट्टी तथा अधिक कार्बनिक पदार्थ वाली होनी चाहिएI जिसका पी.एच. मान 5.3 से 6.5 तक उपयुक्त माना जाता हैI

कौन-कौन सी उन्नतशील प्रजातियां है गुलाब की? 

गुलाब की लगभग 6 प्रकार की प्रजातियां पाई जाती है प्रथम संकर प्रजातियां जिसमे कि क्रिमसन ग्लोरी, मिस्टर लिंकन, लवजान, अफकैनेडी, जवाहर, प्रसिडेंट, राधाकृषणन, फर्स्ट लव , पूजा, सोनिया, गंगा, टाटा सैंटानरी, आर्किड, सुपर स्टार, अमेरिकन हेरिटेज आदि हैI दूसरे प्रकार कि पॉलीएन्था इसमे अंजनी, रश्मी, नर्तकी, प्रीत एवं स्वाती आदिI तीसरे प्रकार कि फ़लोरीबण्डा जैसी कि बंजारन, देहली प्रिंसेज, डिम्पल, चन्द्रमा, सदाबहार, सोनोरा, नीलाम्बरी, करिश्मा सूर्यकिरण आदिI चौथे प्रकार कि गैंडीफलोरा इसमे क्वींस, मांटेजुमा आदिI पांचवे प्रकार कि मिनीपेचर ब्यूटी क्रिकेट, रेड फ्लस, पुसकला, बेबीगोल्ड स्टार, सिल्वर टिप्स आदि और अंत में छठवे प्रकार कि लता गुलाब इसमे काक्लेट, ब्लैक बॉय, लैंड मार्क, पिंक मेराडोन, मेरीकलनील आदि पाई जाती हैI

गुलाब की खेती करने के लिए लेआउट किस प्रकार से तैयार करते है और खेतो की तैयारी किस प्रकार करे?

सुंदरता की दृष्टि से औपचारिक लेआउट करके खेत को क्यारियो में बाँट लेते है क्यारियो की लम्बाई चौड़ाई 5 मीटर लम्बी 2 मीटर चौड़ी रखते हैI दो क्यारियो के बीच में आधा मीटर स्थान छोड़ना चाहिएI क्यारियो को अप्रैल मई में एक मीटर की गुड़ाई एक मीटर की गहराई तक खोदे और 15 से 20 दिन तक खुला छोड़ देना चाहिएI क्यारियो में 30 सेंटीमीटर तक सूखी पत्तियो को डालकर खोदी गयी मिट्टी से क्यारियो को बंद कर देना चाहिए साथ ही गोबर की सड़ी खाद एक महीने पहले क्यारी में डालना चाहिए इसके बाद क्यारियो को पानी से भर देना चाहिए साथ ही दीमक के बचाव के लिए फ़ालीडाल पाउडर या कार्बोफ्यूरान 3 जी. का प्रयोग करेI लगभग 10 से 15 दिन बाद ओठ आने पर इन्ही क्यारियो में कतार बनाते हुए पौधे व् लाइन से लाइन की दूरी 30 गुने 60 सेंटीमीटर राखी जाती हैI इस दूरी पर पौधे लगाने पर फूलो की डंडी लम्बी व् कटाई करने में आसानी रहती हैI

गुलाब की खेती करने के लिए पौध तैयार किस तरह से करे?

जंगली गुलाब के ऊपर टी बडिंग द्वारा इसकी पौध तैयार होती हैI जंगली गुलाब की कलम जून-जुलाई में क्यारियो में लगभग 15 सेंटीमीटर की दूरी पर लगा दी जाती हैI नवम्बर से दिसंबर तक इन कलम में टहनियां निकल आती है इन पर से कांटे चाकू से अलग कर दिए जाते हैI जनवरी में अच्छे किस्म के गुलाब से टहनी लेकर टी आकार कालिका निकालकर कर जंगली गुलाब की ऊपर टी में लगाकर पालीथीन से कसकर बाँध देते हैI ज्यो-ज्यो तापमान बढता है तभी इनमे टहनी निकल आती हैI जुलाई अगस्त में रोपाई के लिए पौध तैयार हो जाती हैI

गुलाब की खेती में पौधों की रोपाई किस प्रकार करते है?

पौधशाला से सावधानीपूर्वक पौध खोदकर सितम्बर-अक्टूबर तक उत्तर भारत में पौध की रोपाई करनी चाहिएI रोपाई करते समय ध्यान दे कि पिंडी से घास फूस हटाकर भूमि की सतह से 15 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर पौधों की रोपाई करनी चाहिएI पौध लगाने के बाद तुरंत सिंचाई कर देना चाहिएI

खाद और उर्वरको की आवश्यकता किस प्रकार पड़ती है गुलाब की खेती में ?

उत्तम कोटि के फूलो की पैदावार लेने के हेतु प्रूनिंग के बाद प्रति पौधा 10 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद मिट्टी में मिलाकर सिंचाई करनी चाहिएI खाद देने के एक सप्ताह बाद जब नई कोपल फूटने लगे तो 200 ग्राम नीम की खली 100 ग्राम हड्डी का चूरा तथा रासायनिक खाद का मिश्रण 50 ग्राम प्रति पौधा देना चाहिएI मिश्रण का अनुपात एक अनुपात दो अनुपात एक मतलब यूरिया, सुपर फास्फेट, पोटाश का होना चाहिएI

सिंचाई के लिए क्या तरीके अपनाये?

गुलाब के लिए सिंचाई का प्रबंधन उत्तम होना चाहिएI आवश्यकतानुसार गर्मी में 5 से 7 दिनों के बाद तथा सर्दी में 10 से 12 दिनों के बाद सिंचाई करते रहना चाहिएI

गुलाब के पौधों की कटाई छटाई यानी कि प्रूनिंग किस प्रकार करे?

उत्तर प्रदेश के मैदानी भागो में कटाई-छटाई हेतु अक्टूबर का दूसरा सप्ताह सर्वोत्तम होता है लेकिन उस समय वर्षा नहीं होनी चाहिएI पौधे में तीन से पांच मुख्य टहनियों को 30 से 40 सेंटीमीटर रखकर कटाई की जाती हैI यह ध्यान रखना चाहिए कि जहाँ आँख हो वहाँ से 5 सेंटीमीटर ऊपर से कटाई करनी चाहिएI कटे हुए भाग को कवकनाशी दवाओ से जैसे कि कापर आक्सीक्लोराइड, कार्बेन्डाजिम, ब्रोडोमिश्रण या चौबटिया पेस्ट का लेप लगना आवश्यक होता हैI

गुलाब के फूलो में कौन-कौन से रोग लगने की सम्भावना रहती है और उसकी रोकथाम के लिए हमें क्या उपाय करने चाहिए?

गुलाब में पाउडरी मिल्ड्यू या खर्रा रोग, उलटा सूखा रोग लगते हैI खर्रा रोग को रोकने हेतु गंधक दो ग्राम प्रति लीटर पानी में या डायनोकॉप एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में या ट्राइकोडर्मा एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अंतराल पर दो छिड़काव दवा अदल-बदल कर करना चाहिएI सूखा रोग की रोकथाम हेतु 50 प्रतिशत कापर आक्सीक्लोराइड को 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए जिससे सूखा रोग न लग सकेI

गुलाब की फसल में कौन-कौन से कीट लगते है?
गुलाब में माहू, दीमक एवं सल्क कीट लगते हैI माहू तथा सल्क कीट के दिखाई देने पर तुरंत डाई मिथोएट 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में या मोनोक्रोटोफास 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर 2 -3 छिड़काव करना चाहिएI दीमक के नियंत्रण हेतु सिंचाई करनी चाहिए तथा फोरेट 10 जी. 3 से 4 ग्राम या फ़ालीडाल 2% धुल 10 से 15 ग्राम प्रति पौधा गुड़ाई करके भूमि में अच्छी तरह मिला देना चाहिएI

गुलाब की खेती में जब फूल तैयार हो जाते है तब उनकी कटाई किस प्रकार करते है?

सफ़ेद, लाल, गुलाबी रंग के फूलो की अध् खुली पंखुड़ियों में जब ऊपर की पंखुड़ी नीचे की ओर मुड़ना शुरू हो जावे तब फूल काटना चाहिएI फूलो को काटते समय एक या दो पत्तियां टहनी पर छोड़ देना चाहिए जिससे पौधों की वहाँ से बढ़वार होने में कोइ परेशानी न हो सकेI फूलो की कटाई करते समय किसी बर्तन में पानी साथ में रखना चाहिए जिससे फूलो को काटकर पानी तुरंत रखा जा सकेI बर्तन में पानी कम से कम 10 सेंटीमीटर गहरा अवश्य होना चाहिए जिससे फूलो की डंडी पानी में डूबी रहे पानी में प्रिजर्वेटिव भी मिलाते हैI फूलो को कम से कम 3 घंटे पानी में रखने के बाद ग्रेडिंग के लिए निकालना चाहिएI यदि ग्रेडिंग देर से करनी हो तो फूलो को 1 से 3 डिग्रीसेंटीग्रेट तापक्रम पर कोल्ड स्टोरेज रखना चाहिए जिससे कि फूलो की गुणवत्ता अच्छी रह सकेI

गुलाब की खेती से फूलो की उपज प्रति हेक्टेयर कितनी मात्रा प्राप्त हो जाती है??

गुलाब की उपज भूमि की उर्वरा शक्ति फसल की देखरेख एवं प्रजातियों पर निर्भर करती हैI फिर भी आमतौर पर लगभग 200 से 250 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती हैI यह उपज पूरे साल में कट फ्लावर से मिलती हैI

----------------------------------------

मेथी की उन्नत उत्पादन तकनीक

मेथी की उन्नत उत्पादन तकनीक

मेथी का वानस्पतिक नाम ट्राइगोनेला फोइनमग्रेसियम एवं एक और वर्ग कस्तूरी मेथी का है जिसका वानस्पतिकनाम ट्राइगोनेला कार्निकुलाटा है। मेथी की खेती मुख्यतः सब्जियों, दानो (मसालों) एवं कुछ स्थानो पर चारो के लिये किया जाताहै। मेथी के सूखे दानो का उपयोग मसाले के रूप मे, सब्जियो के छौकने व बघारने, अचारो मे एवं दवाइयो के निर्माण मे किया जाता है। इसकी भाजी अत्यंत गुणकारी है जिसकी तुलना काड लीवर आयल से की जाती है।इसके बीज में डायोस्जेनिंग नामक स्टेरायड के कारण फार्मास्यूटिकल उधोग में इसकी मांग रहती है। इसका उपयोग विभिन्न आयुर्वेदिक दवाओं को बनाने में किया जाता है। इस लेख मे सामान्य मेथी की उन्नत उत्पादन तकनीक का वर्णन किया जा रहा है।जलवायु:मेथी शरदकालीन फसल है तथा इसकी खेती रबी के मौसम में की जाती है। इसकी वानस्पतिक वृद्धि के लिए लम्बे ठंडे मौसम, आर्द्र जलवायु तथा कम तापमान उपयुक्त रहता है। फूल बनते समय या दाने बनते समय वायु में अधिक नमी और बादल छाये रहने पर बीमारी तथाकीड़ों का प्रकोप बढ़ जाता है। फसल पकने के समय ठण्डा एवं शुष्क मौसम उपज के लिये लाभप्रद होता है। मेथी अन्य फसलो की तुलना मे अधिक पाला सहनशील होता है।भूमि एवं भूमि की तैयारी:दोमट या बलुर्इ दोमट मृदा, जिसमें कार्बनिक पदार्थ प्रचुर मात्रा में हो एवं उचित जल निकास क्षमता हो इसकी सफल खेती के लिये उत्तम मानी जाती है। खेत साफस्वच्छ एवं भुरभुरा तैयार होना चाहिए अन्यथा अंकुरण प्रभावित होता है। खेत की अंतिम जुतार्इ्के समय क्लोरपाइरीफास 20 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए, जिससे भूमिगत कीड़ों एवं दीमक से बचाव हो सके। जुतार्इ के बाद पाटा अवश्य चलाना चाहिये ताकि नमी संरंक्षित रह सके।उन्नतशील किस्में:इसकी किस्मो मे लाम सेलेक्शन-1, गुजरात मेथी-2, आर.एम.टी.-1, राजेन्द्र क्रांति, हिसार सोनाली, कोयंबटूर-1 आदि प्रमुख उन्नतशील किस्में हैं।बीज दर एवं बीजोपचार:इसकी 20-25 कि.ग्रा. मात्रा प्रति हेक्टेयर लगता है। बीज को बोने के पूर्व फफूँदनाशी दवा (कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज) से उपचारित किया जावे। बीज का उपचार राइजोबियम मेलोलेटी कल्चर 5 ग्राम/किलो बीज के हिसाब से करने से भी लाभ मिलता है।बुवार्इ का समय एवं तरीका:मैदानी इलाको मे फसल की बुवार्इ के लिए मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक का समय एवं पर्वतीय क्षेत्रो मे मार्च-अप्रेल सर्वोत्तम रहता है। देरी से बुंवार्इ करने पर उपज कम प्राप्त होती है। अधिक उत्पादन के लिये इसकी बुंवार्इ पंकितयो मे 25 से.मी. कतार से कतार दूरी पर 10 से.मी. पौधे से पौधे की दूरी के हिसाब से करते हैं। बीज की गहरार्इ 5 से.मी से ज्यादा नहीं होना चाहिए।खाद एवं उर्वरक:मृदा जांच के आधार पर खाद व उर्वरक का उपयोग करना लाभकारी रहता है। यदि किसी कारणवश मृदा जांच ना हो पाया हो तो निम्न मात्रा मे खाद एवं उर्वरक का प्रयोग करना चाहिये। गोबर या कम्पोस्ट खाद (10-15 टन/हे.) खेत की तैयारी के समय देवें। चूंकि यह दलहनी फसल है इसलिये इसका जड़ नाइट्रोजन सिथरीकरण का कार्य करता है अत: फसल को कम नाइट्रोजन देने की आवश्यकता पड़ती है। रासायनिक खाद के रूप मे 20-25 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 40-50 कि.ग्रा. फास्फोरस एवं 20-30 कि.ग्रा. पोटाश/हे. बीज बुंवार्इ के समय ही कतारों में दिया जाना चाहिये। यदि किसान उर्वरको की इस मात्रा को यूरिया, सिंगल सुपर फास्फेट एवं म्यूरेट आफ पोटाश के माध्यम से देना चाहता है तो 1 बोरी यूरिया, 5 बोरी सिंगल सुपर फास्फेट एवं 1 बोरी म्यूरेट आफ पोटाश प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है।सिंचार्इ एवं जल निकास:मेथी के उचित अंकुरण के लिये मृदा मे पर्याप्त नमी का होना बहुत जरूरी है। खेत मे नमी की कमी होने पर हल्की सिंचार्इ करना चाहिये। भूमि प्रकार के अनुसार 10-15 दिनों के अंतर से सिंचार्इ करें। खेत में अनावश्यक पानी के जमा होने से फसलपीला होकर मरने लगता है अत: अतिरिक्त पानीकी निकासी का प्रबंध करना चाहिये।पौध संरक्षण:खरपतवार नियंत्रण:बोनी के 15 एवं 40 दिन बाद हाथ से निंदार्इ कर खेत खरपतवार रहित रखें। रासायनिक विधि में पेण्डीमेथिलिन 1 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व बुवार्इ के पहले खेत में डाल देना चाहिए।रोग एवं कीट नियंत्रण:जड़ गलन रोग के बचाव के लिए जैविक फफूँदनाशी ट्राइकोडर्मा से बीज उपचार एवं मृदा उपचार करना चाहिए। फसल-चक्र अपनाना चाहिए। भभूतिया या चूर्णिल आसिता रोग के लिए कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिशत एवं घुलनशील गंधक की 0.2 प्रतिशत मात्रा का छिड़काव करना चाहिए। माहो कीट का प्रकोप दिखार्इ देने पर 0.2 प्रतिशत डाइमेथोएट (रोगार) या इमिडाक्लोप्रिड 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें एवं खेत में दीमक का प्रकोप दिखार्इ देने पर क्लोरपायरीफास 4 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचार्इ के पानी के साथ खेत में उपयोग करे।कटार्इ एवं गहार्इ:मेथी की कटाई इसके किस्मो एवं उपयोग मे लाये जाने वाले भाग पर निर्भर करता है। सब्जियो के लिये पहली कटाई मेथी पत्ती की हरी अवस्था मे बंवाई के लगभग 4 सप्ताह बाद चालू हो जाती है। पौधे को भूमि सतह के पास से काटते है। सामान्यतः 4-5 कटाई नियमित अंतराल पर ली जाती है। दानो के लिये इसकी कटाई जब फसल पीली पड़ने लगे तथा अधिकांश पत्तियाँ ऊपरी पत्तियों को छोड़कर गिर जायें एवं फलियो का रंग पीला पड़ जाये तो फसल की कटाई करनी चाहिए क्योकि सही अवस्था मे कटाई ना करने से फलियो से दानो का झड़ना प्रारंभ हो जाता है। कटाई के बाद पौधो को बंडलो मे बांधकर 1 सप्ताह के लिये छाया मेसुखाया जाता है सूखाने के बाद बंडलो को पक्के फर्श या तिरपाल पर रखकर लकडि़यो की सहायता से पीटा जाता है जिससे दाने फलियो से बाहर आ जाता है। इस काम के लिये थ्रेसर का उपयोग भी किया जा सकता है। दानो को साफ करने के बाद बोरियो मे भरकर नमी रहित हवादार कमरो मे भंडारित करना चाहिये।उपज:इसकी उपज भी किस्मो एवं उपयोग मे लाये जाने वाले भाग पर निर्भर करता है। यदि उन्नत किस्मो एवं सही समय पर उचित शस्य क्रियाओ को अपनाया जाये तो 50-70 किंवटल हरी पत्तियां सब्जी के लिये एवं 15-20 किंवटल दाने मसालो एवं अन्य उपयोगो के लिये प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हो जाते है।