गुरुवार, 6 अक्टूबर 2022

खीरा की जैविक उन्नत खेती

खीरा की जैविक उन्नत खेती

 
जलवायु :-

खीरा विश्व की शीतोष्ण एवं उपशीतोष्ण क्षेत्रों में उगाया जाता है और यहाँ की एक लोकप्रिय सब्जी है खीरे की फसल अल्प कालीन होती है जो अपना जीवन चक्र ६०-८० दिनों में पूरा कर लेती है यह पाला सहन नहीं कर सकता है और विशेष ठंडक में विकास अवरुद्ध हो जाता है और अधिक वर्षा , आद्रता और बादल सहने से कीट एवं रोगों के प्रसारण में वृद्धि हो जाती है खीरा प्रकाश एवं तापमान के घटाव -चढ़ाव से अत्यंत प्रभावित होता है प्रकाश और तापमान की अधिकता और लम्बे प्रकाश काल में नर फुल अधिक आते है और मादा फूलों की संख्या काफी कम हो जाती है जिसका उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है खीरे में वर्षाकालीन फसल में फलन अधिक होता है |

भूमि :-

खीरे को सभी प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है फिर भी दोमट और रेतीली दोमट इसके लिए विशेष उपयुक्त होती है मिटटी में जैविक पदार्थ प्रचुर मात्रा में होना चाहिए और जल निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए इसे साधारण अम्लीय से साधारण क्षारीय मृदाओं में भी उगाया जा सकता है और अत्यधिक अम्लीय एवं क्षारीय मिटटी में पौधे ठीक से नहीं पनपते है खेत में पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करनी चाहिए प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लगाकर मिटटी को भुरभुरा एवं समतल करना चाहिए |

प्रजातियाँ :-

उनत किस्मे :-

विदेशों में प्रविष्टित किस्में हमारे देश में उगाने के लिए अनुशंसित की गई है उनके चारित्रिक गुणों का उल्लेख नीचे किया गया है |

जापानी लौंग ग्रीन :-

यह एक अगेती किस्म है जो ४५ दिन में तैयार हो जाती है इसके फल ३०-४० से.मी. लम्बे और हरे रंग के होते है गुदा हल्का हरा और कुरकुरा होता है |

चयन :-

यह अधिक उपज देने वाली और मध्यम पछेती कठोर किस्म है इसके फल ५० से.मी. लम्बे , सीधे और बेलनाकार होते है छिलका हरे रंग का होता है जिस पर सफ़ेद कांटे होते है गुदा सफ़ेद एवं कुरकुरा होता है |

स्ट्रेट एट :-

यह एक अगेती किस्म है फल साधारण लम्बे मोटे , सीधे और बेलनाकार होते है छिलका हरे रंग का होता है |

पोइनसट :-

यह किस्म साधारण लम्बी , सीधी एवं गहरे हरे रंग की होती है यह किस्म मृदुरोमिल रोग की प्रतिरोधी है |

भारतीय किस्मे :-

खीरा , पंजाब सेलेक्शन , पूना खीरा , 

संकर किस्मे :-

इसे जापानी किस्म कागा ओमेगा पुशिनावी और इटावली  किस्म ग्रीन्लेंड आफ नेपल्स के संकरण से निकाला गया है फल २२-३० से.मी. लम्बे और बेलनाकार हरे गहरे रंग के जिन पर पीले कांटे होते है गुदा कुरकुरा होता है यह अधिक उपज देने वाली किस्म है |

प्रिया :-

इस किस्म का विकास इंडो - अमेरिका हाईब्रिड सीड कंपनी बंगलौर द्वारा किया गया है यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है |

नवीनतम किस्मे :-

पी.सी.यू.एच. १ :-

पूसा उदय :-

इस किस्म का विकास कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है फल हलके हरे व चिकने होते है इस किस्म को बसंत-ग्रीष्म और बर्षा ऋतु दोनों में उगाया जा सकता है पोइन सेट नामक किस्म से ३६ % अधिक उपज देती है यह प्रति हे. १०.५-११.० टन उपज दे देती है |

स्वर्ण पूर्णा :-

इस किस्म का विकास केन्द्रीय बागवानी परीक्षण केंद्र रांची द्वारा किया गया है मध्यम आकार युक्त ठोस फल , चूर्णी फफूंदी के लिए सहन शील यह प्रति हे. ३००-३५० क्विंटल उपज दे देती है |

स्वर्ण शीतल :-

इस किस्म का विकास केन्द्रीय बागवानी परीक्षण केंद्र रांची द्वारा किया गया है मध्यम आकार युक्त ठोस फल चूर्णी फफूंदी एन्थ्रेक्नोज रोगों के प्रति रोधी यह प्रति हे. २५०-३०० क्विंटल मिल जाती है |

बीज बुवाई :-

खीरे की खेती योग्य किस्में मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त की जाती है यथा ग्रीष्मकालीन और बरसाती किस्मे ग्रीष्मकालीन किस्मों के पौधे फैलने वाले होते है और घर्किन कहलाते है बरसाती किस्मों के फल बड़े होते है और वे किस्मे पुरे भारत में उगाई जाती है मैदानी भागों में गर्मी की फसल की बुवाई जनवरी - मार्च तक की जाती है बरसाती फसल के लिए जून-जुलाई उपयुक्त है पाला रहित क्षेत्रों में खीरे की बुवाई अक्टूम्बर में की जाती है जिसके कारण मार्च में अगेती फसल प्राप्त हो जाती है नाथ (१९६५) ने पाले से बचने के  लिए इसकी बुवाई बिभिन्न तिथियों और गहराई पर करने की सलाह दी गई  है  इससे यदि पहली बुवाई की फसल पाले से नष्ट भी हो जाए तो भी दूसरी-तीसरी फसल सुरक्षित रह जाती है खीरे में बीज दर गहराई और पौधों की दुरी नीचे दी गई है -

बीज दर -

 २.५- ३.७ किलो ग्राम 

पंक्ति से पंक्ति की दुरी - 

१५० से.मी. 

पौध से पौध की दुरी -

 ६०-९० से. मी. 

बीज की गहराई - 

१.० से.मी. 

बरसात के दिनों में खीरे को उचे थाले में लगाते है प्रत्येक थाले में ३-४ बीज बोते है बाद में एक-दो पौध को ही रहने देते है |

आर्गनिक खाद :-

खीरे की भरपूर उपज और अच्छा उत्पादन लेने के लिए उसमे आर्गनिक खाद , कम्पोस्ट खाद का होना नितांत आवश्यक है इसके लिए एक हे. भूमि में ४०-५० क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से सड़ी हुई खाद और आर्गनिक खाद २ बैग भू-पावर वजन ५० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो फर्टी सिटी कम्पोस्ट वजन ४० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो नीम वजन २० किलो ग्राम , २ बैग सुपर गोल्ड कैल्सी फर्ट वजन १० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो भू-पावर वजन १० किलो ग्राम और ५० किलो अरंडी की खली इन सब खादों को अच्छी तरह मिलाकर खेत में समान मात्रा में बिखेर कर जुताई कर खेत तैयार करे बुवाई या रोपाई करे |

जब फसल २० - २५ दिन की हो जाये तो माइक्रो झाइम ५ ०० मी. लीटर और २ किलो सुपर गोल्ड मैग्नीशियम   ४० ० - ५०० लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर छिड़काव करते है इस तरह यह क्रिया लगातार २० - २५ दिन बाद दुहराते रहते है |

सिचाई :-
खीरे की गर्मियों में २-३ दिन के अंतर पर सिचाई करनी चाहिए |
खरपतवार नियंत्रण :-
लता की वृद्धि की प्रारंभिक अवस्था निराई-गुड़ाई करने से पौधों का अच्छा विकास होता है  और फलन भी अधिक होता है लता की पूर्व वृद्धि हो जाने पर बड़े-बड़े खरपतवारों को हाथ से उखाड़ देना चाहिए |
कीट नियंत्रण :-
एफिड :-
 ये अत्यंत छोटे - छोटे हरे रंग के कीट होते है जो पौधों के कोमल भागों में रस चूसते है इन कीटों की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि होती है यह विषाणु फैलने का काम भी करते है पत्तियां पीली पड़ जाती है और इनके ओज पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ता है |
रोकथाम :-
इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
फल की मक्खी :-
डेकस  वंश की कुछ मक्खियाँ अनेक बेल वर्गीय सब्जियों को  उनकी बिभिन्न अवस्थाओं में क्षति पहुंचाती है फल की मक्खी का आकार घरेलु मक्खी की तरह होता है यह फलों में छिद्र करके अंडे देती है जो फल के अन्दर ही फूटते है और उनसे निकले मैगट फल के अन्दर ही वृद्धि करते रहते है यह फल के गुदे से अपना भोजन प्राप्त करते है कीट ग्रस्त फल विकृत हो जाते है या सड़ जाते है   |
 
रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

रेड पम्पकिन बीटिल :-

यह लाल रंग का ५-८ से. मी. लम्बा कीट है जो बेल वर्गीय सभी सब्जियों को क्षति पहुंचाता है फसलों के अंकुरण के तुरंत बाद क्षति पहुंचाता है यह पत्तियों के बिच का भाग खाता है |

रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

एपिलैकना बीटिल :-

इसके शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही बेल वर्गीय सब्जियों पर आक्रमण करते है इनका आक्रमण पत्तियों पर होता है और शिशु पत्तियों के बिच के हर भाग को खा जाते है और इसे फीते के रूप में बना देते है |

रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

रोग नियंत्रण :-

विषाणु रोग :-

खीरे पर मोजैक विषाणु का आक्रमण मुख्य रूप से होता है रोग के प्रभाव से पत्तियों पर पीले धब्बे पड़ जाते है और पत्तियां सिकुड़ जाती है अंत में पत्तियां पीली होकर सुख जाती है फलों पर हलकी कर्बुरण से लेकर मस्सेदार वृद्धि तक दिखाई पड़ती है फल आकार में छोटे टेढ़े - मेढ़े , प्राय सफ़ेद और कम संख्या में बनते है यह रोग मुख्य रूप से एफिड व सफ़ेद मक्खियों द्वारा फैलता है |

 रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

मृदुरोमिल रोग :-

यह रोग स्यूडोपरोनोस्पोरा क्यूबेन्सिस  नामक फफूंदी के कारण होता है यह रोग अत्यधिक गर्मी , वर्षा व नमी वाले क्षेत्रों में होता है रोग ग्रस्त पौधों की पत्तियों के उपरी भाग पर पीले धब्बे और निचले भाग पर बैंगनी रंग कर धब्बे दिखाई पड़ते है उग्र रूप में तना और संजनी पर भी आक्रमण होता है पत्तियां सुखकर गिर जाती है |

रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

एन्थ्रेक्नोज :-

यह रोग कोलेटोट्राईकम जाति की फफुन्दियों द्वारा होता है गर्म और नए मौसम में रोग का प्रकोप अधिक होता है इस रोग में फलों और पत्तों पर धब्बे पड़ जाते है खीरे में लाल भूरे सूखे धब्बे बनते है जिसके कारण पत्तियां झुलसी हुई प्रतीत होती है |

रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

चूर्णिल असिता :-

यह रोग ऐरीसाइफी सिकोरेसिएरम नामक फफूंदी के कारण होता है इसका आक्रमण मुख्य रूप से खीरा, लौकी , तरबूज, ककड़ी पर होता है इस रोग में पुरानी पत्तियों की निचली सतह पर सफ़ेद धब्बे उभार आते है धीरे-धीरे इन धब्बो की संख्या और आकार में वृद्धि हो जाती है बाद में पत्तियों के दोनों ओर सफ़ेद पावडर जैसी तह जम जाती है पत्तियों के अलावा तना , फुल व फल पर भी आक्रमण होता है पत्तियों की सामान्य वृद्धि रुक जाती है और पीली पड़ जाती है यह रोग सूखे मौसम में अधिक होता है |

रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

तुड़ाई :-

फसल बुवाई के दो माह बाद तैयार हो जाती है फसल तैयार हो जाने पर २-३ दिन के अंतर पर २ माह की अवधि तक तोड़े जा सकते है |

उपज :-

खीरे की प्रति हे. उपज 200-300 क्विंटल तक हो जाती है

सूक्ष्म जीवों से पा सकते हैं कीटों और रोगों से छुटकारा

सूक्ष्म जीवों से पा सकते हैं कीटों और रोगों से छुटकारा

 

 ज्यादा उत्पादन की चाह में अत्याधिक रसायनिक कीटनाशकों के प्रयोग से इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। किसान अब यह अनुभव करने लगा है कि रासायनिक कीटनाशक अब उन्हीं शत्रु कीटों पर बेअसर हो रहे है, जिनपर वो रसायन प्रयोग कर पहले छुटकारा पा जाते थे।

ऐसे में प्रकृति में बहुत से ऐसे सूक्ष्मजीव हैं जैसे विषाणु ,जीवाणु एवं फफूंद आदि हैं जो शत्रु कीटों में रोग उत्पन्न कर उन्हें नष्ट कर देते है, इन्ही विषाणु, जीवाणु, एवं फफूंद आदि को वैज्ञानिकों ने पहचान कर प्रयोगशाला में इन का बहुगुणन किया तथा प्रयोग हेतु उपलब्ध करा रहे हैं, जिनका प्रयोग कर किसान लाभ ले सकते हैं।

सूक्ष्म जीवों की मदद से पा सकते हैं हानिकारक कीटों और रोगों से छुटकारा

जीवाणु (बैक्टीरिया)- मित्र जीवाणु प्रकृति में स्वतंत्र रूप से भी पाए जाते है, परन्तु उनके उपयोग को सरल बनाने के लिए इन्हें प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से तैयार करके बाजार में पहुंचाया जाता है, जिससे कि इनके उपयोग से फसल को नुकसान पहुचाने वाले कीड़ों से बचाया जा सकता है।

बेसिलस थुरिनजेनेंसिस : यह एक बैक्टीरिया आधारित जैविक कीटनाशक है। इसके प्रोटीन निर्मित क्रिस्टल में कीटनाशक गुण पाए जाते हैं, जो कि कीट के आमाशय का घातक जहर है।   

प्रयोग: यह एक विकल्पी जीवाणु है, जो विभिन्न फसलों में नुकसान पहुचाने वाले शत्रु कीटों जैसे चने की सुंडी, तम्बाकू की सुंडी, सेमिलूपर, लाल बालदार सुंडी, सैनिक कीट एवं डायमंड बैक मोथ आदि के विरुद्ध एक किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने पर अच्छा परिणाम मिलता है।

उपलब्धता:- यह बाज़ार में बॉयो लेप, बॉयो अस्प, डियो पेल, देल्फिन, बॉयो बिट, हाल्ट आदि नामों से बाज़ार में मिलते हैं।                                 

वायरस-

1. न्यूक्लीअर पाली हेड्रोसिस वायरस (एन.पी.वी) :-

यह एक प्राकृतिक रूप से मौजूद वायरस पर आधारित सूक्ष्म जैविक है। वे सूक्ष्म जीवी जो केवल न्यूक्लिक एसिड एवं प्रोटीन के बने होते हैं, वायरस कहलाते है।

प्रयोग: कीट प्रबंधन के लिए प्रयुक्त इन वायरसों से प्रभावित पत्ती को खाने से सुंडी 4-7 दिन के अन्तराल में मर जाती है। सर्वप्रथम संक्रमित सुंडी सुस्त हो जाती है, खाना छोड़ देती है। सुंडी पहले सफ़ेद रंग में परिवर्तित होती है और बाद में काले रंग में बदल जाती है तथा पत्ती पर उलटी लटक जाती है।

इस जैविक उत्पाद को 250 एल.ई. प्रति हैक्टेयर की मात्रा से आवश्यक पानी में मिलाकर फसल में प्रायः शाम के समय छिडकाव उस वक़्त करें, जब हानि पहुंचाने वाले कीटों के अंडो से सुंडिया निकलने का समय हो। इस घोल में दो किलो गुड़ भी मिला लिया जाये तो अच्छे परिणाम मिलते हैं।

उपलब्धता: यह बाज़ार में हेलीसाइड, बायो-वायरस –एच, हेलिओसेल, बायो-वायरस-एस., स्पोड़ो साइड, प्रोडेक्स  के नाम से उपलब्ध है।

ग्रेनुलोसिस वायरस (जी.वी.):-

इस सूक्ष्मजैविक वायरस का प्रयोग सूखे मेवों के भण्डार कीटों, गन्ने की अगेता तनाछेदक, इन्टरनोड़ बोरर एवं गोभी की सुंडी आदि के विरुद्ध सफलतापूर्वक किया जा सकता है। 

प्रयोग: गन्ने और गोभी की फसल में कीट प्रबंधन के लिए एक किलोग्राम पाउडर को 100 लीटर पानी में घोलकर पौधों पर छिड़काव करने से रोकथाम में सहायता मिलती है।                                 

फफूंदी :-

1) ब्यूवेरिया बेसियाना :-

यह प्रकृति में मौजूद सफेद रंग की फफूंदी है जो विभिन्न फसलों एवं सब्जियों की लेपिडोप्टेरा वर्ग की सुंडियों जैसे – चने की सुंडी, बालदार सुंडी, रस चूसने वाले कीट, वूली एफिड, फुदको, सफ़ेद मक्खी एवं स्पाईडर माईट आदि कीटो के प्रबंधन के लिए प्रयुक्त की जाती है। 

उपलब्धता:- यह बाज़ार में बायो रिन, लार्वो सील, दमन, तथा अनमोल बॉस के नाम से मिलते हैं।

2) मेटारीजियम एनीसोपली:-

यह बहुत ही उपयोगी जैविक फफूंदी है, जो कि दीमक, ग्रासहोपर, प्लांट होपर, वुली एफिड, बग एवं बीटल आदि के करीब 300 कीट प्रजातियों के विरुद्ध उपयोग में लाया जाता है। इस फफूंदी के स्पोर पर्याप्त नमी में कीट के शरीर पर अंकुरित हो जाते है जो त्वचा के माध्यम से शरीर में प्रवेश करके वृद्धि करते है।

मित्र फफूंदियों को प्रयोग करने की विधि:- मित्र फफूंदियों की 750 ग्राम मात्रा को स्टिकर एजेंट के साथ 200 लीटर पानी में मिलाकर एक एकड़ क्षेत्रफल में सुबह अथवा शाम के समय छिड़काव करने के आशा अनुकूल असर दिखाई पड़ता है। सफ़ेद गिडार के नियंत्रण के लिए 1800 ग्रा. दवाई को 400 ली.पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें।

3) मित्र सुत्रकृमी

कीटहारी सुत्रकृमियों की कुछ प्रजातियां कीटों के ऊपर परजीवी रहकर उन्हें नष्ट कर देती हैँ। कुछ सुत्रकृमियों जीवाणुओं के साथ सह-जीवन व्यतीत करते है, जो सामूहिक रूप से कीट नियंत्रण में उपयोगी है। सुत्रकृमी डी.डी.136 को धान, गन्ना तथा फलदार वृक्षों के विभिन्न नुकसान पहुँचाने वाले कीटों के नियंत्रण हेतु सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है।

 

सूक्ष्म जैविक रोग नाशक:

1)ट्राईकोडर्मा : 

यह एक प्रकार की मित्र फफूंदी है जो खेती को नुकसान पहुंचाने वाली हानिकारक फफूंदी को नष्ट करती है। ट्राईकोडर्मा के प्रयोग से विभिन्न प्रकार की दलहनी, तिलहनी, कपास, सब्जियों एवं विभिन्न फसलों में पाए जाने वाली मृदाजनित रोग जैसे-उकठा, जड़ गलन, कालर सडन, आद्रपतन कन्द् सडन आदि बीमारियों को सफलतापूर्वक रोकती है।   

ट्राईकोडर्मा उत्पाद

ट्राईकोडर्मा की लगभग छह प्रजातियां ज्ञात हैं। लेकिन केवल दो प्रजातियां ही जैसे-ट्राईकोडर्मा विरडी एवं ट्राईकोडर्मा हर्जियानम मिट्टी में बहुतायत मात्रा में पाई जाती हैं।  

उपलब्धता:- यह बाज़ार में बायोडर्मा, निपरॉट, अनमोलडर्मा, ट्राइको–पी  के नाम से उपलब्ध है।

प्रयोग:

1.बीज शोधन:

बीज उपचार के लिए 5 से 10 ग्राम पाउडर प्रति किलो बीज में मिलाया जाता है। परन्तु सब्जियों के बीज के लिए यह मात्रा पांच ग्राम प्रति 100 ग्राम बीज के हिसाब से उपयोग में लाई जाती है।

2.भूमि शोधन:

एक किग्रा पाउडर को 25 किग्रा. कम्पोस्ट खाद में मिलकर एक सप्ताह तक छायादार स्थान पर रखकर उसे गिले बोरी से ढका जाता है ताकि स्पोर अंकुरित हो जाये, फिर इस कम्पोस्ट को एक एकड़ खेत में मिलकर फसल की बोआई की जाती है|

3.खड़ी फसल पर छिडकाव:

पौधों में रोग के लक्षण दिखाई पड़ने पर बीमारी की प्रारंभिक अवस्था में ही 5 से 10 ग्राम पाउडर को प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करने पर अच्छा परिणाम दिखाई पड़ता है।

2. न्यूमेरिया रिलाई :

यह भी एक प्रकार का फफूंद है जो कीटों में रोग पैदा कर उन्हें नष्ट कर देता है। यह सभी प्रकार के लेपिडोपटेरा समूह के कीटों को प्रभावित करता है, परन्तु यह चना, अरहर के हेलिकोवर्पा आर्मिजेरा, सैनिक कीट, गोभी एवं तम्बाकू की स्पोडोप्टेरा लिटुरा तथा सेमीलूपर कीट को विशेष रूप से प्रभावित करता है।

कार्य पद्धति: फफूंद के बीजाणु छिड़काव के पश्चात कीटों के शरीर पर चिपक जाते हैं। फसल पर पड़े फफूंद के संपर्क में आने पर यह जैव क्रिया कर कीटों के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं वहां यह कीट के शरीर को तरल तत्व पर अपना विकास कर कवक जाल फैलता है और उन्हें मृत कर देता है। 

प्रयोग विधि: इस फफूंद के पाउडर के 6 भाग को 100 लीटर पानी में घोलकर संध्या काल में इस प्रकार से छिडकाव करे कि पूरी फसल अच्छी तरह से भींग जाये।

सुक्ष्जीवों के प्रयोग में सावधानियां :

सुक्ष्जीवियों पर सूर्य की परा-बैगनी (अल्ट्रा-वायलेट) किरणों का विपरीत प्रभाव पड़ता है, अत: इनका प्रयोग संध्या काल में करना उचित होता है।

सूक्ष्म-जैविकों विशेष रूप से कीटनाशक फफूंदी के उचित विकास हेतु प्रयाप्त नमी एवं आर्द्रता की आवश्यकता होती है। सूक्ष्म-जैविक नियंत्रण में आवश्यक कीड़ों की संख्या एक सीमा से ऊपर होनी चाहिए। इनकी सेल्फ लाइफ कम होती है, अत: इनके प्रयोग से पूर्व उत्पादन तिथि पर अवश्य ध्यान देना चाहिए।

राजीव कुमार एवं उमेश कुमार, जैविक भवन, क्षेत्रीय-केन्द्रीय एकीकृत नाशीजीव प्रबन्धन केंद्र, लखनऊ से बातचीत पर आधारित