सोमवार, 18 जनवरी 2021

खाद की असली पहचान और खेती मे प्रयोग कैसे करें

खाद की असली पहचान और खेती मे प्रयोग कैसे करें  :- 

1. डीएपी के कुछ दाने धीमी आंच पर तवे पर गर्म करें यदि ये दाने फूल जाते हैं तो यही असली डीएपी है l

2. यूरिया के दानों  को तवे पर गर्म करने पर इसके दाने पिघल जाते हैं |और तेज आंच पर इसका कोई अवशेष न बचे तो यही असली यूरिया है |

3) डीएपी को सिर्फ बीजाई के समय खेत मे मिलाये , बीजाई के बाद डाला गया डीएपी - फसल  के काम नही आता  हैं !

4) यूरिया को सिचाई  के 3-5 दिन बाद , खेत मे डाले , सिचाई  से पहले डाला गया यूरिया पानी मे घुल कर - पोधो  की जडो से नीचे चला जाता हैं , जो फसल  के लिये  बेकार और भूमि  के पानी  के लिये नुक्सानदायक होता हैं जो इंसानो मे बीमारियो का मुख्य कारण बनता हैं !

5) फसल मे फूल आने पर,  2% यूरिया का छीड़काव बहुत लाभदायक हैं !

रविवार, 17 जनवरी 2021

ग्लेडियोलस की वैज्ञानिक खेती

ग्लेडियोलस की वैज्ञानिक खेती

भूमिका

ग्लेडियोलस एक बहुत ही सुन्दर फूल है जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय फूलों में से एक  है। इसके पौधो की ऊंचाई 2 से 8 फीट तक होती है। ग्लेडियोलस फूलों के रंग और आकार की एक बड़ी रेंज  है। एक पौधे की डंडी में 30 तक फूल लगते है जो या तो एक ही रंग या फिर दो या तीन रंग के सम्मिश्रण में होते हैं। भारत में ग्लेडियोलस सबसे लोकप्रिय व्यावसायिक कट लावर फसल बन गयी है। ग्लेडियोलस की मांग दिन प्रति दिन बढ़ रही है क्योंकि बहुरंगी किस्मों, अलग अलग रंग, आकार और फूल स्पाइक के लंबे रख गुणवत्ता में बदलती घरेलू बाजार में इस फूल की खेती बहुत लोकप्रिय हो गयी है। ग्लेडियोलस भारत में मैदानी और पहाड़ी इलाकों की जलवायु में एक विस्तृत श्रृंखला में उगाया जा रहा है । ग्लेडियोलस एक बारहमासी बल्बनुमा पौधों फूल परितारिका परिवार के सदस्य हैं इसे ‘‘लिली तलवार’’ भी कहा जाता है । ये फूल एशिया, यूरोप, दक्षिण अफ्रीका और उष्णकटिवंधीय अफ्रीका में पाया जाता है।  इसके फूल गुलाबी, रंग या विषम, सफेद निशान या लाल को क्रीम या नारंगी के लिए सफेद रंग के साथ प्रकाश बैंगनी है। ग्लेडियोलस फूल अगस्त में खिलते हैं। भूमध्य और ब्रिटिश ग्लेडियोलस फूल शरीरिक रोगों के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है ।

ग्लेडियोलस अपने सुन्दर फूल स्पाइक (डंडी) के लिए जाना जाता है। इसके शानदार रंग, आकर्षक अलग आकार, उत्कृष्ट एवं गुणवत्ता के लिए मशहूर हैं। ग्लेडियोलस  दोनों उद्यान एवं फूलों की सजावट के लिए आदर्श हैं। ग्लेडियोलस गुलदस्ते के लिए एक कट लावर, बेड के लिए बहुत अच्छा है। ग्लेडियोलस भी तलवार लिली के रूप में जाना जाता है। इस फूल की 260 प्रजातियां है। औषधी के रूप में यह दस्त और पेट की गड़बड़ी के उपचार में पारंपरिक चिकित्सा में इस्तेमाल किया जाता है ।

ग्लेडियोलस की खेती करके किसान अधिक धन कमा सकते हैं। इनकी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काफी मांग है। ग्लोडियोलस शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'ग्लेडियस' से बना है, जिसका अर्थ 'तलवार' है क्योंकि ग्लेडियोलस की पत्तियों का आकार तलवार जैसा होता है। इसके आकर्षक फूल जिन्हें लोरेट भी कहते हैं, पुष्प दंडिका 'स्पाइक' पर विकसित होते हैं और ये 10 से 14 दिनों तक खिले रहते हैं। इसका उपयोग कट-फ्लावर के रूप में गमलों में एवं गुलदस्तों में किया जाता है। ग्लेडियोलस की कुछ अद्वितीय विशेषताओं जैसे अधिक आर्थिक लाभ, आसान खेती, शीघ्र पुष्प प्राप्ति, पुष्पकों के विभिन्न रंगों, स्पाइक की अधिक समय तक तरोताजा रहने की क्षमता एवं कीट-रोगों के कम प्रकोप आदि के कारण इसकी लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

भूमि और जलवायु

ग्लेडियोलस की खेती सभी प्रकार की मृदा में की जा सकती है, किंतु बलुई दोमट मृदा जिसका पीएच मान 5.5 से 6.5 के मध्य हो तथा जीवांश पदार्थ की प्रचुरता हो, साथ ही भूमि के जल निकास का उचित प्रबंध हो, सर्वोत्तम मानी जाती है। खुला स्थान जहां पर सूर्य की रोशनी सुबह से शाम तक रहती हो, ऐसे स्थान पर ग्लेडियोलस की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।

ग्लेडियोलस की खेती हेतु के में  से के में  तापक्रम  16 डिग्री सेंटीग्रेट तथा अधिक  तापक्रम  23 से 40 डिग्री सेंटीग्रेट उपयुक्त होता है इसमे फूल आने पर बरसात नहीं होनी चाहिए ग्लेडियोलस की खेती सभी प्रकार की भूमि की जा सके ती है जहाँ पर पानी का निकास अच्छा होता है लेकिन बलुई दोमेंट भूमि सर्वोत्तम  मानी जाती है।

ग्लेडियोलस की किस्में

ग्लेडियोलस किस्मों में दोस्ती, स्पिक, अवधि, मंसूर लाल, डा. लेमिंग, पीटर नाशपाती और सफेद दोस्ती । भारत में विकसित किस्मों में सपना,पूनम, नजराना, अप्सरा, अग्निरेखा, मयूर, सुचि़त्रा, मनमोहन, मनोहर, मुक्ता, अर्चना, अरूण और शोभा हैं । ग्लेडियोलस में विभिन्न रंगों की अनेक उत्तम गुणवत्ता वाली प्रजातियां प्रचलित हैं जो निम्न प्रकार हैं

लाल :- अमेरिकन ब्यूटी, ऑस्कर, नजराना, रेड ब्यूटी

गुलाबी :-पिंक फ्रैंडशिप, समर पर्ल

नारंगी:- रोज सुप्रीम

सफेद :- ह्वाइट फ्रैंडशिप, ह्वाइट प्रोस्पेरिटी, स्नो ह्वाइट, मीरां

पीला:- टोपाल, सपना, टीएस-14

बैंगनी:- हरमैजस्टी

ग्लेडियोलस की उन्नतशील प्रजातियां

ग्लेडियोलस की लगभग दस हजार किस्मे है लेकिन कुछ मुख्य प्रजातियों की खेती उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्रो में होती है जैसे कि स्नो क्वीन, सिल्विया, एपिस ब्लासमें , बिग्स ग्लोरी, टेबलर, जैक्सन लिले, गोल्ड बिस्मिल, रोज स्पाइटर, कोशकार, लिंके न डे, पैट्रीसिया, जार्ज मैसूर, पेंटर पियर्स, किंग कीपर्स, किलोमिंगो, क्वीन, अग्नि, रेखा, पूसा सुहागिन, नजराना, आरती, अप्सरा, सोभा, सपना एवं पूनमें  आदि है।

भूमि की तैयारी और बुवाई

जिस खेत में ग्लेडियोलस की खेती करनी हो उसकी 2-3 बार अच्छी तरह से जुताई करके मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए। इसके लिए खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए। क्योंकि इसकी जड़ें भूमि में अधिक गहराई तक नहीं जाती है। ग्लेडियोलस की खेती घनकंदों (कार्मस) द्वारा की जाती है। बुवाई करने का सही समय मध्य अक्टूबर से लेकर नवंबर तक रहता है। किस्मों को उनके फूल खिलने के समयानुसार अगेती, मध्य और पछेती के हिसाब से अलग-अलग क्यारियों में लगाना चाहिए।

ग्लेडियोलस की प्रति हेक्टेयर बुवाई

एक  हेक्टेयर भूमि कन्दों की रोपाई हेतु लगभग दो लाख के कन्दों की आवश्यकता पड़ती है यह  मात्रा कन्दों की रोपाई की दूरी पर घट बढ़ सके ती है। कन्दों का शोधन बैविस्टीन के 0.02 प्रतिशत के घोल में आधा घंटा डुबोकर छाया में सुखाके र बुवाई या रोपाई करनी चाहिए।

कन्दों की रोपाई का उत्तमें  समें य उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रो सितम्बर से अक्टूबर तके  होता है। कन्दों की रोपाई लाइनो में करनी चाहिए। शोधित कन्दों को लाइन से लाइन एवं पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर अर्थात 20 गुने 20 सेंटीमीटर की दूरी पर 5 सेंटीमीटर की गहराई पर रोपाई के रनी चाहिए। लाइनो में रोपाई से निराई-गुड़ाई में आसानी रहती है और नुकसान भी के में  होता है।

कुल 4 -5 निराई-गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। दो बार मिट्टी पौधों पर चढ़ानी चाहिये उसी में नाइट्रोजन का प्रयोग टॉप ड्रेसिंग के रूप में करना चाहिए। तीन पत्ती की स्टेज पर पहली बार व् छः पत्ती की स्टेज पर दूसरी बार मिट्टी चढ़ानी चाहिए।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा
मल्टीप्लायर : एक किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से किसी खाद के साथ या सिंचाई के माध्यम से देना है। तथा स्प्रे में हर सप्ताह 10 ग्राम प्रति पम्प के हिसाब से देना है।

गली-सड़ी खाद : 5 किलोग्राम प्रति वर्ग मी.

नत्रजन : 30 ग्राम प्रति वर्ग मी.

फोस्फोरस : 20 ग्राम प्रति वर्ग मी.

पोटाश : 20 ग्राम प्रति वर्ग मी.

खेत तैयार करते समय सड़ी गोबर की खाद आख़िरी जुताई में मिला देना चाहिए। इसके साथ ही पोषके तत्वों की अधिक  आवश्यकता होने के कारण 200 किलोग्राम  नत्रजन, 400 किलोग्राम  फास्फोरस तथा 200 किलोग्राम  पोटाश तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व् पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय बेसल ड्रेसिँग के रूप में देना चाहिए शेष नत्रजन की आधी मात्रा कन्दों की रोपाई एक  माह  बाद टॉप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए।

ग्लेडियोलस की खेती में सिंचाई

पहली सिंचाई घनकंदों के अंकुरण के बाद करनी चाहिए। इसके बाद सर्दियों में 10-12 दिन के अंतराल तथा गर्मियों में पांच-छह दिन के अंतराल पर करनी चाहिए।

सिंचाई रोपाई के 10 से 15 दिन बाद जब कंद अंकुरित होने लगे तब पहली सिंचाई करनी चाहिए। फसल में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए तथा पानी सिंचाई का भरा भी नहीं रहना चाहिए। अन्य सिंचाई मौसमें  के अनुसार आवश्यकतानुसार करनी चाहिए जब फसल खुदने से पहले पीली हो जाये तब सिंचाई नहीं करनी चाहिए।

फूलों की कटाई

घनकंदों की बुवाई के पश्चात अगेती किस्मों में लगभग 60-65 दिनों में, मध्य किस्मों 80-85 दिनों तथा पछेती किस्मों में 100-110 पुष्प उत्पादन शुरू हो जाता है। पुष्प दंडिकाओं को काटने का समय बाजार की दूरी पर निर्भर करता है।

रोग का रोकथाम

इसमें झुलसा रोग, कंद सडन एवं पत्तियों के सूखने की बीमारी लगती है। इनके नियंत्रण हेतु 0. 05 प्रतिशत को ओरियोफैंजिमें  का घोल बनाकर या 0. 2 प्रतिशत का बैविस्टीन अथवा वेलनेट का घोल बनाकर 10 से 12 दिन के अंतराल पर छिड़काव के रना चाहिए।

इसमे माहू एवं लाल सूंडी कीट लगते है इनकी रोकेथाम के लिए रोगार 30 ई.सी. को 250 मिलीलीटर दवा 250 लीटर अर्थात 1 मिलीलीटर दवा 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

फूलो या स्पाइको की कटाई सुबह  के समय करनी चाहिए।  कटाई के बाद डंडियों को बाल्टी में भरे पानी में रखना चाहिए। यदि पुष्प दूर भेजना हो तो डंडी की नीचे की कली में जैसे ही रंग दिखाई देना शुरू हो जाये तो काट लेना चाहिए तथा सौ-सौ के गुच्छों में बांधकर बाजार में भेजना चाहिए। यदि जल्दी प्रयोग में लाना हो तो तीन-चार पुष्प अवश्य पूर्ण विकसित होना चाहिए। कंदो की खुदाई करने के पश्चात 10 से 15 दिन छायादार कमरे में सुखाना चाहिए इसके बाद कंदो को लकड़ी की है हवादार पेटियो में या पतले बोरे में भरना चाहिए जिनमे हवा जा सके इससे सड़ने का डर नहीं रहता है।

पौधों की दूरी के अनुसार एक  लाख से एक  लाख पच्चीस हजार पुष्प डांडिया प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है।


शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

प्याज की खेती

प्याज की खेती

यह एक नकदी फसल है जो प्रायः सर्दी व बरसात के मौसम में उगाई जाती है। इसमें विटामिन-सी, फाॅस्फोरस आदि पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। प्याज का उपयोग सलाद, सब्जी, अचार तथा मसाले के रूप में किया जाता है। हरी पत्तियों एवं सूखे कंद दोनों ही रूप में उपयोग किया जाता है। गर्मी में लू लगने तथागुर्दे की बीमारी वाले रोगियों के लिए भी प्याज लाभदायक हैै।जलवायु एवं भूमि: प्याज की फसल के लिए जलवायु नतो बहुत गर्म और न ही ठण्डी होनी चाहिए। अच्छे कंद बनने के लिए लम्बा दिन तथा कुछ अधिक तापमानहोना अच्छा रहता है। साधारणतः सभी प्रकार की भूमियों में इसकी खेती की जा सकती है किन्तु जलनिकास युक्त उपजाऊ दोमट मिट्टी जिसमें जीवांश खाद प्रचुर मात्रा में हो सर्वाेŸाम रहती है। भूमि अधिक क्षारीय व अधिक अम्लीय नहीं होनी चाहिए अन्यथा कन्दों की वृद्धि अच्छी नहीं होती है। अगर भूमि में गंधक की कमी हो तो 400 किलो जिप्सम प्रति हैक्टर की दर से खेत की अंतिम तैयारी के लगभग 15 दिन पूर्व मिलाना चाहिए।उन्नत प्रजातियाँ:एग्रीफाउन्ड डार्क रेड: यह किस्म खरीफ मौसम में देश के विभिन्न भागों के लिए उपयोगी पायी गई है। इसके कन्द गहरे लाल, गोलाकार आकार के होते हैं, त्वचा अच्छी प्रकार से चिपकी होती हैतथा स्वाद मध्यम तीखा होता है। यह किस्म 140-145 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। पैदावार 200-275 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है। कन्द में कुल ठोस पदार्थ 12-13 प्रतिशत तक पाया जाता है। यह किस्म राष्ट्रीय बागवानी अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान द्वारा विकसितकी गई है।एग्रीफाउन्ड लाईट रेड: यह किस्म आकार में गोल तथा लाल रंग वाली होती है। इसकी भण्डारण क्षमता अच्छी है। यह 120-125 दिन में पक कर तैयार होती है तथा इसकी पैदावार 300-325 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त की जा सकती है।एग्रीफाउन्ड व्हाईट: यह किस्म मध्यप्रदेश के निमार क्षेत्र में रबी के मौसम में बोने हेतु उपयुक्त पायी गई है। इसके कंद आकर्षक सफेद रंग,गोलाकार तथा बाहृयशल्क मजबूती से जुड़े रहते हैं तथा व्यास 5-5.5 से.मी. होता है। कुल ठोस पदार्थ 14-15 प्रतिशत तक होता है। यह बुवाई के 160-165 दिन बाद पककर तैयार हो जाती है तथा उत्पादन 200-250 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त किया जा सकता है। यह किस्म निर्जलीकरणके लिए बहुत उपयुक्त है।पूसा रेड: यह किस्म कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली द्वारा विकसित की गई है। इसका कंद मध्यम व चिपटा से ग्लोबाकार आकार का होता है, जिसका औसत भार 70-90 ग्राम तथा रंग ताँबें जैसा होता है। यह रोपाई के 140-145 दिन बाद पककर तैयार हो जाती है। इसकी कुल उपज 250 क्विं. तक हो जाती है। यह रबी मौसम में उगाई जाती है, परन्तु महाराष्ट्र प्रदेश में रबी तथा खरीफ दोनों मौसम में उगाई जा सकती है।पूसा माधवी: यह किस्म भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा मुजफ्फर नगर के स्थानीय संग्रह से चुनाव पद्धति द्वारा विकसित की गई है। यह मैदानी भागों में उगाने केलिए उपयुक्त है। कन्द आकार में मध्यम चिपटापन लिए हुए, हल्के लाल होते हैं। इसकी भण्डारण क्षमता अच्छी तथा फसल रोपाई के 130-145 दिन खुदाई के लिए तैयार हो जाती है। औसतन उत्पादन 300 क्विंटल प्रति हैक्टर तक प्राप्त किया जासकता है। यह किस्म रबी मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त पायी गई है।नर्सरी तैयार करना: रबी की फसल के लिए बीज मध्यअक्टूबर से मध्य नवम्बर तक बोना चाहिए। खरीफ प्याज की खेती के लिए छोटे कंद बनाने के लिए बीज को जनवरी के अंतिम सप्ताह में या फरवरी के प्रथम सप्ताह में बोना चाहिए। इस हेतु 25 ग्राम बीज प्रति वर्ग मीटर पर्याप्त है। एक हैक्टर में फसल लगाने के लिए 10 किलो बीज पर्याप्त होता है। पौध एवं कंद तैयार करने के लिए 1 गुणा 3 मीटर आकार की उठी हुई क्यारियाँ बनाकर नर्सरी तैयार करें। क्यारियों की मिट्टी को बुवाई से पहले अच्छी तरह से भुरभुरी कर लेना चाहिए। बोने के बाद बीजों को बारीक खादएवं भुरभुरी मिट्टी व घास से ढंक देवें। उसके बाद झारे से पानी देवें फिर अंकुरण के बाद घास-फूँस को हटा देवें। रबी के मौसम में प्याज की नर्सरी में लगने वाली बीमारियों के नियंत्रण हेतु 0.2 प्रतिशत थायोफानेट मिथाइल या 0.4 प्रतिशत ट्राइकोडर्मा विरिडी से बीजोपचार करें। खरीफ की फसल यदि बीज द्वारा पौध बनाकर फसल लेनी हो तो इसकी बुवाई मई के अंतिम सप्ताह से जून के मध्य तक की जाती है और यदि छोटे कंदों द्वारा खरीफ में अगेती फसल या हरी प्याज लेनी हो तो कन्दों को अगस्त माह में बोना चाहिए।रोपण: प्याज की पौध लगभग 7 से 8 सप्ताह में रोपाई योग्य हो जाती है। खरीफ फसल के लिए रोपाईका उपयुक्त समय जुलाई के अंतिम सप्ताह से लेकर अगस्त तक है तथा रबी मौसम के लिए 15 दिसम्बर से15 जनवरी तक है। खरीफ मौसम में देरी करने से तथा रबी मौसम में जल्दी रोपाई करने से फूल निकलआते हैं। रोपाई करते समय कतारों के बीच की दूरी15 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखते हैं। रोपाई खेत में क्यारियाँ बना कर करनी चाहिए। कंदों की बुवाई 45 से.मी. की दूरी पर बनी मेड़ों पर 10 से.मी. की दूरी पर दोनों तरफ करते हैं। बुवाई के लिए 1.5 से 2 से.मी. व्यास वाले आकार के कन्द ही चुनने चाहिए। एक हैक्टर के लिए 10 क्विंटल कन्द पर्याप्त होते हैं।खाद एवं उर्वरक: प्याज के लिए अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद 400 से 500 क्विंटल प्रति हैक्टरकी दर से खेत तैयार करते समय मिला देवें। इसके अलावा 100 किलो नत्रजन, 50 किलो फाॅस्फोरस तथा 100 किलो पोटाश की आवश्यकता होती है। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फाॅस्फोरस एवं पोटाशकी पूरी मात्रा रोपाई से पूर्व खेत की तैयारी के समय देवें। नत्रजन की शेष मात्रा रोपाई के एक डेढ़ माह बाद खड़ी फसल में देवें। वर्मी कम्पोस्ट 10 टन के साथ 75 किलो नत्रजन, 37 किलो फाॅस्फोरस तथा 75 किलो पोटाश प्रति हैक्टर देने से अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है। जिंक की कमी वाले क्षेत्रों में रोपाई से पूर्व जिंक सल्फेट 25 किलो प्रति हैक्टर की दरसे भूमि में मिलावें। सूक्ष्म पोषक तत्वों तांबा व मैंगनीज की कमी वाली भूमि में 10.5 किलो काॅपर सल्फेट एवं 16.5 किलो मैंगनीज सल्फेट प्रति हैक्टर की दर से भूमि में उपयोग करें।खरपतवार नियंत्रण: आॅक्सीफ्लोरफेन 23.5 ई.सी. 800 मिली प्रति हैक्टर की दर से पौध रोपण से पूर्व खेत में छिड़काव करें।सिंचाई: बुवाई या रोपाई के साथ एवं उसके तीन चार दिन बाद हल्की सिंचाई अवश्य करें जिससे मिट्टी नम रहे। बाद में भी हर आठ से बारह दिन केअन्तराल पर सिंचाई अवश्य करते रहें। फसल तैयारहोने पर पौधे के शीर्ष पीले पड़कर गिरने लगते हैं। इस समय सिंचाई बंद कर देनी चाहिए।खुदाई: कन्दों सेें लगाई गई प्याज की फसल 90 से 110 दिन में तैयार हो जाती है तथा बीजों से तैयार की गई फसल 140 से 150 दिन में तैयार हो जाती है। रबी की फसल तैयार होने पर पत्तियों केशीर्ष पीले पड़कर सूख जाते हैं। इसके 15 दिन बाद खुदाई करनी चाहिए। खरीफ मौसम में पत्तियांगिरती नहीें हैं अतः जब गांठों का आकार 6 से 8 से.मी. व्यास वाला हो जाये तो पत्तियों को पैरों से जमीन पर गिरा देना चाहिए जिससे पौधों की वृद्धि रूक जाये एवं गांठें ठोस हो जावें। इसके लगभग 15 दिन बाद गांठों की खुदाई करनी चाहिए।सुखाना: खुदी हुई गांठों को पत्तियों के साथ एक सप्ताह तक सुखावें। यदि धूप तेज हो तो छाया में लाकर रख देवें तथा एक सप्ताह बाद पत्तियों को गांठ के दो से ढाई से.मी. ऊपर से काट दें तथा एक सप्ताह तक सुखावें।कीट प्रबंध:पर्ण जीवी: ये कीट छोटे आकार के होते हैं तथा इनका आक्रमण तापमान में वृद्धि के साथ तीव्रतासे बढ़ता है और मार्च में अधिक स्पष्ट दिखाई देने लगता है। इन कीटों द्वारा रस चूसने से पत्तियां कमजोर हो जाती हैं तथा आक्रमण के स्थान पर सफेद चकत्ते पड़ जाते हैं। नियंत्रण हेतु मैलाथियाॅन 50 ईसी एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। आवश्यक हो तो 15 दिन बाद छिड़काव दोहरावें।व्याधि प्रबंध:तुलासिता: इस रोग से पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रूई जैसी फफूँद की वृद्धि दिखाई देती है। रोग के प्रभाव से पत्तियों का रोगग्रस्त भाग सूख जाता है। नियंत्रण हेतु मैन्कोजैब या जाइनेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।अंगमारी: इस रोग के कारण पत्तियों की सतह पर सफेद धब्बे बन जाते हैं जो बीच में बैंगनी रंग के हो जाते हैं। नियंत्रण हेतु मैन्कोजैब या जाइनेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए। इसके साथ तरल साबुन का घोल अवश्य मिलाना चाहिए।गुलाबी जड़ सड़न: इस रोग से जड़ें हल्की गुलाबी होकर गलने लगती हैं। नियंत्रण हेतु शल्क कंदोंको बाविस्टिन 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल से 30 मिनट तक उपचारित करके लगाना चाहिए।भण्डारण: प्याज का भण्डारण अच्छे हवादार कमरोंमें जिनका फर्श सीलन रहित हो, करना चाहिए। इन्हें फर्श पर 8-10 से.मी. की परत बनाकर फैला देना चाहिए। भण्डारण में प्याज का ढेर कभी नहीं लगाना चाहिए। कमरे में भण्डारित प्याज कोबीच-बीच में पलटते रहना चाहिए तथा सड़ी व अंकुरित गांठों को निकाल देना चाहिए। प्याज केकंदों के सुरक्षित भण्डारण के लिए बाँस, सरकंडा या लकड़ी से दो खाने बनाकर प्याज भण्डार भी बनाया जा सकता है। उपज: प्याज से प्रति हैक्टर लगभग 200 से 300 क्विंटल तक पैदावार ली जा सकती है।डॉ. रामराज मीना,विषय विशेषज्ञ (उद्यान), कृषि विज्ञान केन्द्र,झालावाड

सोमवार, 4 जनवरी 2021

गन्ने की खेती में किसान भाई किस माह में क्या करें

गन्ने की खेती में किसान भाई किस माह में क्या करें

जनवरी :-

1. पाले से बचाव हेतु खड़ी फसल में आवश्यकतानुसार सिचाई करे |
2. शरदकालीन गन्ने के साथ ली गई विभिन्न अन्तह फसलो जैसे सरसों, तोरिया ,मसूर , आलू , धनिया ,लहसुन,मैथी , गेंदा प्याज तथा गेहू आदि आवश्यकतानुसार निराई, गुड़ाई , कीट प्रबंधन एवं संतुलित उर्वेरको का प्रयोग करे |
3. बसंतकालीन बुवाई की तैयारी शुरू कर दे इस हेतु मरदा परिक्षण कराकर ही उर्वरको का प्रयोग करे |
4. बसंतकालीन बुवाई हेतु कुल क्षेत्रफल का १/३ भाग शीघ्र पकने वाली प्रजातियो के अंतर्गत रखे साथ ही बुवाई हेतु स्वस्थ बीजो का चयन कर उसका विशेष प्रबंध करें |
5 .गन्ने से खाली हुए खेत की तैयारी कर पशुओ के लिए चारे की फसल एवं सब्जियों की खेती करें |
6. अगेती पोधे की फसल की कटाई तापमान यदि काफी कम हो तो न करें इससे पैडी गन्ने में फुटाव उत्तम नहीं होगा |

फरवरी :-

1. पोधे गन्ने की कटाई जमीन से सटाकर करें जिससे फुटाव अच्छा होगा |
2. यथा संभव पोगले न छोड़ें इससे पैडी प्रबंध में कठिनाई होगी साथ ही उत्पादन अपेछित नहीं होगा |
3. शरदकालीन गन्ने में सिचाई एवं निराई , गुड़ाई तथा खरपतवार का नियंत्रण करें |
4. गन्ना बीज जिन खेतों में रोकना हो उसमें सिचाई आदि का विशेष धयान रखें , बुवाई पूर्व बीज नर्सरी में यूरिया के प्रयोग से फुटाव अच्छा होता है |
5. पैडी गन्ने की देखभाल करें, खाली जगह पर गैप फिलिंग करें तथा सिचाई व गुड़ाई के बाद एन पी के आदि उर्वरको का प्रयोग करें |
6. कुल रकवे के अनुसार प्रजातीय संतुलन को धयान में रखकर बुवाई करें |
7. गन्ना बीज उपचार हेतु पारा युक्त रसायन एग्लाल ३ % (५६० ग्राम) एरितान ६% (२८० ग्राम) या एम् ई एम् सी ६% (२८० ग्राम) या बाविस्टीन ११० ग्राम को घोलकर टुकड़ो को उपचारित करें |
8. बुवाई के समय दीमक व अंकुर बेधक के नियंत्रण हेतु फोरेट -१० जी २५ किलोग्राम या सेविडाल ४:४ जी २५ किलोग्राम या किलोरोपरिफोस -२० ई सी ५ लीटर /हैक्टयेर की दर से प्रयोग करें |
9. गन्ने की बुवाई के समय सुछम पोषक तत्वों (जिंक सल्फेट सुपर सुगर कैन स्पेशल आदि २५ किलोग्राम /है ० की दर से ) का भी प्रयोग करें |

मार्च :-

1. अच्छी उपज के लिए उत्तम प्रजातियो एवं बुवाई की नई तकनीको यथा ट्रेंच पद्धति का प्रयोग करें |
2. सफ़ेद गिडार के नियंत्रण हेतु बुवाई के समय बबरिया वेसियाना एवं मेटारैजियम ५ किलो०/है ० की दर से ६०:४० के अनुपात में प्रयोग करें |
3. आय को बढाने तथा संशाधनो के समुचित प्रयोग हेतु गन्ने के साथ साथ उड़द मूंग , फ्रास बीन मक्का आदि फासले लें |
4. सह फसल में उर्वरको की अति रिक्त मात्रा का प्रयोग करें |
5 . शरदकालीन गन्ने में यदि फ़रवरी माह में यूरिया की टॉप ड्रेसिंग न की तो मार्च में सिचाई के पश्चात १३२ किलो ग्राम यूरिया/है ० की दर से टॉप ड्रेसिंग करें |
6. बावग गन्ने की कटाई उपरांत खेत में मेंड़ जोतने के बाद ठूठों की छटाई पंक्तियों के दोनों तरफ गुड़ाई एवं रिक्त स्थानों में पूर्व अंकुरित पोंधो से भराई करें |
7. ऐसीटोंबेकटर एवं पी एस बी ५ किलो ग्राम /है ० की दर से प्रथम सिचाई के उपरांत पोंधो के कूंड बनाकर डालना चाहिए या बुवाई के समय प्रयोग करें |
8. कंडुआ रोग दिखाई देने पर पोंधो को नस्ट कर दें |
9. चोटी बेधक के अंड समूह को एकत्रित कर नस्ट कर दें |
10. बसंतकालीन गन्ने में खरपतवार नियंत्रण हेतु २ किलोग्राम ऐतरा जीन सक्रिय तत्व पानी में घोल बनाकर बुवाई के तुरंत बाद छिडकाव करें |

अप्रैल :-

1. गन्ने के अच्छे फुटाव के लिए गुड़ाई कर कूंड बनाकर यूरिया खाद की दूसरी मात्रा का प्रयोग करें |
2. शरदकालीन गन्ने के साथ अन्तं: फसल की कटाई यदि हो गई हो टों सिचाई करें एवं उर्वरक की शेष मात्रा कूंड बनाकर डाल दें |
3. यदि गेंहू के बाद गन्ने की बुवाई कर रहें हैं तो लाइन से लाइन की दूरी घटाकर ६५ से ० मी ० कर लें तथा बीज की मात्रा भी बढाकर प्रयोग करें जिससे खेत में पोंधों की संख्या उचित मात्रा में रहें |
4. इसी माह में पायरीला का प्रकोप हो सकता है यदि मित्र कीट (अंड परजीवी ) इपीरिकीनिया मिलेनोल्युका यदि खेत में है तो कीट नाशी का प्रयोग न करें बल्कि सिचाई कर हलकी यूरिया का प्रयोग करें |

मई :-

1. सूखे से बचाने हेतु आवश्यकता नुसार सिचाई करते रहें |

2. इस माह में अगेती चोटी बेधक के नियंत्रण हेतु सिचाई करते रहें साथ ही सेवीडॉल ४:४ जी फोरेट -१० जी फ़रतेरा या कार्ताफ २५ किलो ग्राम / है ० या क्लोरोप्यरीफोस २० ई सी १ लीटर ७०० लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें जब अंडे एवं पतंगे दिखाई पड़े |
3. अगेती चोटी बेधक हेतु त्रैकोकार्ड ४ /है ० की दर से प्रयोग करें |
4. फसल की अच्छी बडवार कीट नियंत्रण एवं पोषक तत्वों की कमी हेतु यूरिया मैक्रोन्यूट्रीएंट का २ % घोल एवं कीटनाशक रसायन जैसे एन्डोसल्फान मेटासिड या क्लोरोप्यरीफोस २० ई सी का १ % घोल का छिडकाव करें |
5. यदि बसंतकालीन बुवाई के समय खरपतवार नियंत्रण हेतु ऐतराजीन का प्रयोग किया है तो इस माह २-४ डी १ किलोग्राम सक्रिय तत्व छिडकाव करें |

जून :-

1.उर्वरक की शेष मात्रा इस माह अवश्य पूर्ण कर ले |

2.गुड़ाई पूर्ण करने के पश्यात मिट्टी चढाई का कार्य अवश्य करें |

3.खरपतवार नियंत्रण हेतु निराई करे | यदि देर से अर्थात अप्रैल में बुबाई के समय अत्रजिन का उपयोग किया है तो इस माह मे खरपतवार नियंत्रण हेतु 2 , 4 डी० 1 KG सक्रिय तत्व 500 -600 ली० पानी मे घोल बना कर छिडकाव करें |

जुलाई :-

1.गन्ने के जिन खेतों का ब्यात पूरा हो चूका है उनमें मिट्टी चढ़ा दे |
2 . चोटी बेधक का मादा तिल्ली जुलाई माह में पत्तियों की निचली सतह पर समूह में अण्डे देती है |
अण्डे वाली पत्तियों को नस्ट कर दे तथा कार्बोफुरान ३ जी० 25 किo/ हैo की दर से अवश्य प्रयोग करें |
3. चोटी बेधक के नियंत्रण हेतु त्र्य्कोकार्ड 4 . / है० की दर से प्रयोग करें |
4 . गुरदासपुर बेधक के नियंत्रण हेतु सूखे अगोले को काटकर जमीन मे दबा दें तथा क्लोरोपाएरिफास 20 ई० सी० / ली० प्रति है० की दर से छिडकाव करें |
5 . जल निकास का उचित प्रबंधन करें |
6 . बर्षा के दिनों में पर्याप्त बर्षा न होने पर 8 - 10 दिन के अन्तेराल पर सिचाई करते रहें |
7 . सूखे से बचने जल के समुचित उपयोग एवं बिजली की कमी से निपटने के लिए ड्रिप सिचाई प्रयोग करें |
8 . सफेद गिडार के नियंत्रण हेतु लाइट ट्रैप या पोधो पर कीटनाशी छिडकाव कर नियंत्रण करें |
9 . शरद कालीन गन्ने को गिरने से बचाने के लिए बंधाई अवश्य करें |

अगस्त :-

1.गुरदासपुर बेधक एवं सफेद मक्खी का प्रभावी नियंत्रण हेतु जल निकास की व्यवस्था करें तथा मनोक्रोतोफास 36 ई० सी० या क्लिरोपरिफास 20 ई० सी० 1 - 1 .5 ली० प्रति है० की दर से छिडकाव करें | 2.गन्ने की दुसरी बधाई अवश्य करें | 3.अगस्त माह मे गन्ने पर चड़ने वाले खरपतवार यथा आइपोमिया प्रजाति (बेल) की बडवार होती है , जिसे खेत से उखाड़कर फेक दे | अथवा मेट सल्फुरान मिथाइल ( ऍम० एस० ऍम० ) 4 ग्राम / है० की दर से 500 -600 ली० पानी मे घोल बना कर जब इसमें छोटे पोधे खेत मे दिखाई पड़े प्रयोग करना चहिये |

सितम्बर :- 

1 गन्नेे की तृतीय एवं बधाई का कार्य पूर्ण कर ले |
2 शरद कालीन बुवाई हेतु खेत की तैयारी शुरू कर दे |
3 पायरीला का परकोप अधीक होने पर क्लोरोपय्रीफास 20 इ० सी ० / ली ० या मोनोकोटोफास 36 इ ० सी ० , 10 - 15 ली ० / है ० की दर से पर्योग करे |

अक्टूबर : -

1 शरद कालीन बुवाई प्रारंभ कर दे , वेगयानीक बुवाई वीधी या ट्रेंच वीधी का पर्योग करे |
2 यथा संभव गन्ने की लाइने पूरब से पश्चिम की ओर होनी चाहीये|
3 लाइन से लाइन की दूरी 90 सेमी ० रखे |
4 गन्ना बीज की पारायुक्त रसायन से अवश्य उपचारित करे |
5 आय बढ़ाने हेतु शरद कालीन बुवाई में सहफसली पद्दती को अवश्य अपनाये |

नवम्बर :- 

1 फसल की अच्छी बढवार के लीए 12 - 15 दीन के अन्तराल पर सीचाई करे |
2 अच्छी पैडी लेने के लीए गन्ने की कटाई सतह से करे ताकि फुटाव अचछा हो |
3 मील को गन्ना नीरधारीत कलेंडर अनुसार पर्ची प्रापत होने पर कटाई कर आपूर्ति करे |
4 अगेती प्रजाती का पैडी गन्ना चीनी मील को साफ सुथरी स्थीती में आपूर्ती करे |
5 गन्ना संबंधी कीसी भी कठीनाई पर सम्बंधित समिति , चीनी मील एवं जीला गन्ना अधीकारी से संपर्क करे |
6 समिति कर्ज की कटोती पूर्ण करने हेतु कर्जे की पर्ची प्रापत कर गन्ने की आपूर्ती प्राथमिकता पर करे |
7 कर्जे की कटोती से सम्बन्ध में सम्बंधित समिति से संपर्क करे |
दिसम्बर :- 

1 अंत में फसल में नीराई गुड़ाई करे |
2 आवश्यकतानुसार सीचाई करते रहे |
3 पैडी फसल काटने के बाद यदी गेहू की बुवाई करना चाहते है तो गेहू की पछेती कीश्मो का चुनाव करे |
4 खेतो में जीवांश खाद्य गोबर , कम्पोस्ट , मैली को डालकर फैला कर जुताई कर दे |
5 पाले से फसल को बचाने के लीए सीचाई करे |

रविवार, 3 जनवरी 2021

ग्राफ्टिंग किए गए पौधे को खेत में लगा ते समय आवश्यक सावधानियां

ग्राफ्टिंग किए गए पौधे को खेत में लगा ते समय आवश्यक सावधानियां

बेड की तैयारी।  

1.जमींन की तयारी करते समय जल निकासी की उचित व्यवस्था करे।  2.पूरी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद ६ टन प्रति एकड़ में डालकर जमींन तैयार कर सकते है ।  3.पौधे लगाने से पहले रासायनिक उर्वरक ना डालें। बुनियादी खुराक के बजाय, यदि आवश्यक हो तो सिंगल सुपर फास्फेट के साथ अच्छी तरह से विघटित खाद को मिलाकर दीजिए। 4.पौधे लगाने से पहले १.५ फ़ीट का बेड बना सकते है ।  5.गर्मी में सफ़ेद और काला कलर वाली मल्चिंग का प्रयाग करे। ठंडी में सिल्वर और काला कलर वाली मल्चिंग का प्रयाग करे। सिल्वर कलर वाले मल्चिंग में ज्यादा गर्मी पैदा होती है। 6.अगर ज्यादा गर्मी है , तो बेड पर मल्चिंग में ज्यादा होल (छेद) बना सकते है। जिससे ड्रिप चलने पर गर्मी बहार जाएगी। 7.पौधे लगाने से पहले ४ दिन ड्रिप चलना है , जिससे जमीनकी गर्म हवा निकल जाए और वापसा कंडीशन बनाई जाए। 8.किसान अपनी सुविधा के अनुसार पत्तीसे पत्ती की दुरी निर्धारित कर सकते है।  9.अधिक तर किसान बैंगन के लिए ८ x ३ फ़ीट,मिर्ची के लिए ५.५ x २ फिट,टोमेटो के लिए ५ x २ फिट कि दुरी पर पौधेका रोपण करते है।10. बेड (बिस्तर) में उचित नमी के बाद मल्चिंग की जाती है

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लीची की खेती की पूरी जानकारी

लीची की खेती की पूरी जानकारी

एकदम अलग स्वाद की वजह से लीची की मांग दुनियाभर में है. इसमें विटामिन सी भरपूर मात्रा में पाया जात है. वैसे तो सबसे ज्यादा लीची का उत्पादन करने वाला देश चीन है लेकिन इस मामले में भारत भी पीछे नहीं है. भारत में हर साल 1 लाख टन के करीब लीची का उत्पादन होता है. अच्छी गुणवत्ता वाली लीची की मांग स्थानीय के साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी बड़े पैमाने पर है. वैसे तो ज्यादातर लीची ताजा ही खाए जाते हैं लेकिन इसके फलों से जैम, शरबत, नेक्टर, कार्बोनेटेड पेय आदि भी तैयार किए

भारत में सबसे ज्यादा लीची कहां होती है

भारत में सबसे ज्यादा लीची का उत्पादन बिहार में होता है जहां मुज़्ज़फरपुर और दरभंगा जिलों में सबसे ज्यादा लीची पैदा होती है. बिहार के बाद पश्चिम बंगाल, असम, उत्तराखंड और पंजाब का नंबर आता है.

लीची की खेती के लिए जलवायु (Climate for Litchi)

समशीतोष्ण जलवायु लीची के उत्पादन के लिए उपयुक्त है. जनवरी-फरवरी में फूल आते समय आसमान साफ़ और शुष्क होने से लीची में अच्छी मंजरी बनती है जिससे ज्यादा फल आते है. मार्च एवं अप्रैल में कम गर्मी पड़ने से फलों का विकास, गूदे का विकास एवं गुणवत्ता अच्छी होती है. लीची की खेती के लिए विशिष्ट जलवायु की जरूरत होती है. इसकी खेती देश में उत्तरी बिहार, देहरादून की घाटी, उत्तर प्रदेश का तराई क्षेत्र तथा झारखंड प्रदेश के कुछ क्षत्रों में आसानी से होती है. लीची में जनवरी-फरवरी में फूल आते हैं एवं फल मई-जून में पक कर तैयार हो जाते है.

मिटटी का चुनाव(Selection of soil)

लीची की खेती के लिए गहरी बलुई दोमट मिट्टी जिसकी जल धारण क्षमता अधिक हो, उपयुक्त होती है. लीची की खेती हल्की अम्लीय एवं लेटराइट मिट्टी में भी की जा सकती है लेकिन जल भराव वाले क्षेत्र लीची के लिए उपयुक्त नहीं होते. अत: इसकी खेती जल निकास युक्त जमीन में करने से अच्छा लाभ होता है.

उन्नत किस्में (Improved varieties)

शाही: यह देश की एक व्यावसायिक एवं अगेती किस्म है, जिसके फल गोल एवं छिलके गहरे लाल होते है. और अंदर से रसीलेदार सफेद रंग के होते हैं. इस किस्म के फल 15-30 मई तक पक जाते है. खुशबूदार और गूदे की अधिक मात्रा इस किस्म की प्रमुख विशेषता है. इस किस्म के 15-20 वर्ष के पौधे से 80-100 किलो उपज प्रति वर्ष प्राप्त की जा सकती है.

चाइना: यह एक देर से पकने वाली किस्म है जिसे पौधे अपेक्षाकृत बौने होते है. इस किस्म के फल चटखन की समस्या से मुक्त होते है. फलों का रंग ऊपर से गहरा लाल तथा गूदे की मात्रा अधिक होने की वजह से इसकी अत्यधिक मांग बनी हुई है. यह किस्म एक साल छोड़कर दूसरे साल फल देती है.

स्वर्ण रूपा: यह किस्म छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र के लिए उपयुक्त है. इसके फल मध्यम समय में पकते है और चटखन की समस्या से मुक्त होते हैं. बीज का आकार छोटा, गुदा अधिक मीठा होता है.

इसके अलावा अर्ली बेदाना, डी- रोज और त्रिकोलिया भी लीची की अच्छी किस्म हैं

पौध प्रवर्धन (Plant propagation)

लीची की व्यावसायिक खेती की लिए गूटी विधि द्वारा पौधा तैयार किया जाता है. बीज से प्राप्त पौधों में अच्छी गुणवत्ता के फल नहीं आते हैं तथा उनमें फलन भी देर से होता है. गूटी विधि द्वारा पौध तैयार करने के लिए मई-जून के महीने में स्वस्थ और सीधी डाली का सलेक्शन किया जाता है. इस डाली के शीर्ष से 40-50 सेमी नीचे किसी भी गांठ के पास चाकू से गोलाई में 2 सेमी का चौड़ा छल्ला बना लिया जाता है. छल्ले के ऊपरी सिरे पर IBA की 2000 पी.पी.एम. मात्रा का पेस्ट बनाकर रिंग या छल्ले पर लगाया जाता है.  छल्ले को नमी युक्त मॉस घास से ढककर ऊपर से पालीथीन का टुकड़ा लपेट कर सुतली से कसकर बांध दिया जाता है ताकि हवा अंदर जा सके. गूटी बांधने के करीब 2 महीने के भीतर जड़े पूरी तरह से निकल जाती है. इसके बाद डाली की लगभग आधी पत्तियों को निकालकर पौधे से काटकर आंशिक छायादार स्थान पर लगाएं.

पौधारोपण कैसे करे (How to plantation)

लीची के पौधे को अप्रैल-मई महीने में 10 X 10 मीटर की दूरी पर 1 X 1 X 1 आकार के गड्डे में लगाना उचित रहेगा. बरसात के शुरुआती में 2-3 टोकरी गोबर की सड़ी हुई खाद 2 किलो नीम की खली, 1 किलो सिंगल सुपर फास्फेट मिट्टी मे अच्छी तरह मिलाकर गड्ढा भर दें. ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्र में गड्ढे को खेत की सामान्य सतह से 20-25 सेमी ऊंचा भरें ताकि मिट्टी दब भी जाये और पानी पौधे के चारों तरफ देर तक जमा ना हो.

पौध संरक्षण (Plant protection)

फलों का फटना: लीची के फल फटने की समस्या आम है. यह समस्या मिट्टी में नमी और तेज गर्म हवाओं की वजह से होती है. ज्यादातर जल्दी पकने वाली किस्मों में फल फटने की समस्या अधिक आती है. इसके निराकरण के लिए बाग के चारों तरफ वायु रोधी वृक्षों को लगाएं तथा अक्टूबर में मल्चिंग करें. अप्रैल से फलों के पकने तक हल्की-हल्की सिंचाई करते रहें और वृक्षों पर पानी का छिड़काव करें. इस प्रकार के प्रबन्धन के साथ-साथ फल लगने के 15 दिनों के बाद से वृक्ष पर 5 ग्राम प्रति लीटर बोरेक्स या 5 ग्राम प्रति लीटर घुलनशील बोरॉन 20% के घोल का 2-3 बार छिड़काव 15 दिन के अन्तराल पर करे.

लीची माइट: यह छोटी मकड़ी होती है जो कोमल पत्तियों की निचली सतह, टहनियों और पुष्पवृन्तों से चिपक कर लगातार रस चूसते रहते हैं, जिससे पत्तियाँ मोटी और मुड़ जाती है. इससे पौधे कमजोर हो जाते हैं. इसके नियंत्रण के लिए प्रॉपरजाइट 57% EC की 2 मिली मात्रा या एबामेक्टिन 1.9% EC की 0.4 मिली मात्रा एक लीटर पानी में छिडकाव करना चाहिए.

टहनी छेदक: यह कीट पौधों की नई कोपलों के मुलायम टहनियों से प्रवेश कर उनके भीतरी भाग को खाते हैं, जिससे टहनियां सूख जाती हैं| रोकथाम के प्रभावित टहनी को तोड़कर जला देना चाहिए. रसायनिक उपचार जैसे सायपरमेथ्रिन 1 मिली या इमामेक्टिन बेंजोएट 5% SG @ 0.5 प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें. या जैविक उपचार के रूप में बवेरिया बेसियाना @ 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें.

फल बेधक: अधिक नमी होने पर ये कीट फल के अन्दर प्रवेश कर जाते है और फल को सड़ा देते है. इसके प्रकोप से बचाव के लिए फल तोड़ाई के लगभग 40-45 दिन पहले से सायपरमेथ्रिन 25% EC @ 0.5 मिली प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव कर दें. जरूरत के हिसाब से 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें

लीची बग: समान्यतः मार्च-अप्रैल और जुलाई-अगस्त में पौधों पर इस कीट का प्रकोप देखा जाता है. यह कीट नरम टहनियों, पत्तियों और फलों से रस चूसकर उन्हें कमजोर कर देते हैं. इसके अलावा फलों की बढ़त रोक देते हैं. ऐसे में सायपरमेथ्रिन 25% EC @ 0.5 मिली या क्लोरपीरिफॉस की 1 मिली मात्रा 1 लीटर पानी में छिडकाव करना चाहिए.

ऐंथ्राक्नोज रोग: इस बीमारी के साथ पत्तों पर भूरे रंग के धब्बे पड़ना, पत्ते झाड़ जाना और टहनियों का सूखना आदि लक्षण दिखाई देते है. इसके नियंत्रण के लिए मेंकोजेब 75 WP @ 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में छिड़काव करें. या जैविक के रूप में ट्राइकोडर्मा विरिडी @ 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें.

खाद एवं उर्वरक (Manure & Fertilizer)

शुरुआती वर्षो तक लीची के पौधों को 30 किलो अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद, 2 किलो नीम की खली, 250 ग्राम यूरिया, 150 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट तथा 100 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश हर साल प्रति पौधे की दर से देना चाहिए. 3 साल बाद 35 किलो अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद, 500 ग्राम यूरिया, 2.5 किलो नीम की खली, 500 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट तथा 600 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष की दर से देना उचित रहेगा. 7-10 साल की फसल के लिए गोबर की खाद की मात्रा बढ़ा कर 40-50 किलो, यूरिया 1000-1500 ग्राम, सिंगल सुपर फासफेट 1000 ग्राम और म्यूरेट ऑफ पोटाश 300-500 ग्राम प्रति वृक्ष दें.

जब फसल 10 साल की हो जाये और अधिक फलन की अवस्था तक आ जाए तो गोबर की खाद 60 किलो, यूरिया 1600 ग्राम, सिंगल सुपर फासफेट 2.25 किलो और म्यूरेट ऑफ पोटाश 600 ग्राम प्रति वृक्ष प्रति वर्ष देते रहना चाहिए.

खाद देने के बाद सिंचाई जरूर करें. लीची के फलों की तुड़ाई के तुरंत बाद खाद देनी सही रहती है. जिससे पौधों में कल्लों का विकास और फलन अच्छा होता है.

सिंचाई व्यवस्था (Irrigation arrangement)

लीची के पौधे लगाने के बाद जरूरत के हिसाब से नियमित सिंचाई करें. सर्दियों में 5-6 दिनों तक गर्मी में 3-4 दिनों के अंतराल पर थाला विधि से सिंचाई करनी चाहिए. लीची के वृक्ष जब फल लगने की अवस्था तक पहुंच जाए तब फूल आने के 3-4 माह पहले (नवम्बर से फरवरी) पानी नहीं देना है. इससे फूल आने को प्रेरित किया जाता है. पानी की कमी से फल का विकास रुक जाता है एवं फल चटखने लगते हैं.

कांट-छांट

पूरी तरह से विकसित वृक्ष में शाखाओं के घने होने के कारण सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाता है और साथ ही कीट और रोग लगने की संभावना बढ़ जाती है. इसलिए लीची के शुरुआती 3-4 वर्षो में पौधों की अवांछित या सूखी शाखाओं को निकाल दें. वृक्ष की 3-4 मुख्य शाखाओं को विकसित होने देना चाहिए, ऐसा करने से फलन भी अधिक होता है और कीट व रोग का आक्रमण भी कम हो पाता है.

खरपतवार प्रबंधन (Weed management)

पेड़ो के आसपास खरपतवार बढ़ने से कीट व रोगों की समस्या बढ़ जाती है. हाथ या कृषि यंत्र से खरपतवार को नष्ट किया जा सकता है. खरपतवारनाशी दवाओं से बचना चाहिए क्योंकि इसका विपरीत असर पेड़ों पर पड़ सकता है.

तुड़ाई और भंडारण (Fruit harvesting and storage)

फल पकाई के समय गुलाबी रंग का और फल की सतह का समतल हो जाती है. फल को गुच्छों में तोड़ा जाना चाहिए. इस फल को लम्बे समय तक स्टोर नहीं किया जा सकता. इसलिए नजदीकी बाज़ार में बेचने के लिए तुड़ाई पूरी तरह से पकने के बाद करनी चाहिए और दूर के बाजारों में भेजने के लिए इसकी तुड़ाई फल के गुलाबी होने के समय करनी चाहिए. तुड़ाई के बाद फलों को इनके रंग और आकार के अनुसार ग्रेडिंग करनी चहिए. लीची के हरे पत्तों को बिछाकर टोकरियों में इनकी पैकिंग करें. लीची के फलों को 1.6-1.7 डिग्री सैल्सियस तापमान और 85-90% नमी में भंडारित करना चाहिए. फलों को इस तरह 8-12 सप्ताह के लिए स्टोर किया जा सकता है.

उपज (Yield)

पूर्ण विकसित 15-20 साल के लीची के पौधों से औसतन 70-100 किलो फल प्रति वृक्ष प्रति वर्ष प्राप्त किये जा सकते हैं.

संपर्क सूत्र/ लीची के पौधे कहा से खरीदे (For contact/ Where to buy litchi plant)

  • देश में बागवानी के कई सरकारी संस्थान और कृषि विश्वविद्यालय है जिनसे सम्पर्क किया जा सकता है.

  • राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केन्द्र, मुजफ्फरपुर, बिहार या निदेशक 06212289475, 09431813884 से सम्पर्क किया जा सकता है.

  • लीची की खेती और पौध उपलब्ध के लिए राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केन्द्र मुजफ्फरपुर से प्रशिक्षण और सम्पर्क किया जा सकता है.

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

मिर्च की खेती

मिर्च की खेती :- 

परिचय

मिर्च बहुत ही उपयोगी फसल है इसको हरी खाने के रूप में मसाले तथा अचार के रूप  में प्रयोग करते है, इसकी खेती जायद एवं खरीफ दोनों फसलो में की जाती हैI

मिर्च की कौन कौन सी उन्नत शील प्रजातियाँ है? 

मिर्च की फसल में दो तरह की प्रजातियाँ है, जैसे की पूसा ज्वाला, पन्त सी.-1 ,पूसा सदाबहार, जी-4 ,आजाद मिर्च-1, चंचल, कल्यानपुर चमन, आदि है, दूसरी है संकर प्रजातियाँ तेज्व्स्नी, आग्नि, चेम्पियन, ज्योति एव सूर्या आदिI

मिर्च  की खेती के लिए किस प्रकार भूमि व जलवायु की आवश्यकता होती है?

इसके पौधे के वृद्धि के लिए नम एवं गर्म मौसम में ठंडक होना चाहिए, भूमि अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट या दोमट भूमि उपयुक्त होती हैI

 मिर्च की खेती के लिए खेत की तैयारी किस तरह से करे?

पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करनी चाहिए इसके बाद २-३ जुताई कल्टीवेटर से करके खेत को हम पाटा लगा  कर हम भुर भूरा बना लेते है I

बीज की मात्राऔर उसका शोधन हम किस तरह से करे?

सामान्य प्रजातियाँ जिसमे बीज की मात्रा ८००से १००० ग्राम प्रति हेक्टर के हिसाब से लगती है, दूसरी संकर प्रजातियाँ है जिनकी २०० से २५० ग्राम प्रति हेक्टर के हिसाब से लगती है, बीज शोधन के लिए २ ग्राम थीरम प्रति किलो ग्राम के हिसाब से उपचारित कर लेना चाहिए I

अब बारी आती है मिर्च के वुवाई और उसके रोपाई की तो यह हमें कब और कितने दिन बाद करनी चाहिए बीज शोधन करने के पश्चात मई और जून में पौध डालनी चाहिएI जब हमारी पौध 20 से 25 दिन की हो जाए तब रोपाई करनी चाहिएI

मिर्च की फसल की रोपाई हमें कितनी दुरी पर करनी चाहिए ?

सामान्य प्रजातियों की रोपाई ४५ सेंटी मीटर लाइन  से लाइन ४५ सेंटी मीटर पौध से पौध की दुरी पर करते है तथा संकर प्रजातियों की रोपाई ६० सेंटी मीटर लाइन  से लाइन ४५ सेंटी मीटर पौध से पौध की दुरी रखते हैI

मिर्च की खेती के लिए सिचाई किस प्रकार और कब करे? 

रोपाई के पश्चात हल्की सिचाई करना आति आवश्यक है इसके एक सप्ताह बाद सिचाई क्योकि यह वर्षा ऋतू की फसल है इसलिए इसमें सिचाइयो की आवश्यकता कम पड़ती है, जब जब आवश्यकता पड़े तब तब सिचाई करनी चाहिए  I

मिर्च की खेती के लिए खाद एव् उरवर्क की मात्रा कितनी और कब प्रयोग करे?

खेत को तैयार करते समय २०० से २५० कुन्तल सड़ी कम्पोस्ट या गोबर की खाद को आखिरी जुताई में मिला देना चाहिए लेकिन इस पर भी तत्व के रूप में ८० किलो ग्राम नाइट्रोजन ६० किलो ग्राम फास्फोरस ६० किलो ग्राम पोटाश देना आती आवश्यक है रोपाई से पहले आखिरी जुताई के समय आधी नाइट्रोजन फास्फोरस पोटाश की पूरी मात्रा आखिरी जुताई के समय मिला देना चाहिए शेष नाइट्रोजन की मात्रा खड़ी फसल में दो बार में देना चाहिए I

खरपतवार का निराकरण हम कैसे करे?

रोपाई करने के बाद एक हप्ते बाद सिचाई करते है, ओट आने के बाद निराई गुड़ाई कर देनी चाहिए, जिससे की खरपतवार हमारी फसल में न रहे और आवश्यकता पड़ने पर 15 से 20 दिन पर निराई गुड़ाई करके खेत को खरपतवार से साफ रखना चाहिए

 मिर्च की फसल में रोग उत्पन हो जाते है या कीट लग जाते है उनकी सुरछा हम किस प्रकार से करे?

मिर्च की फसल में मोजेक बहुत ज्यादा लगता है , जिसे हम लीफ कर्ल के नाम से पुकारते है ,यह मोजेक वाइट फलाई सफ़ेद मख्खी से फैलता है ,इसके नियंत्रण के डाइथेनियम ४५ अथवा  डाइथेनियम जेड ७८ तथा मेटा सिसटक १ लीटर प्रति हेक्टर के हिसाब से खड़ी फसल  में छिडकाव करना चाहिए इसके बचाव के लिए लगातार १० से १५ दिन पर छिडकाव करते रहना चाहिए जिससे की हमारी फसल अच्छी पैदावार दे सके

मिर्च की फसल हमारी तैयार हो जाती है ,तो उसकी तोड़ाई हमें कब और कितनी बार करनी चाहिए ?

इसकी फसल हम दो तरह से पैदा करते है ,एक तो हरी फसल हरी फलियाँ बेचने के लिए दूसरा मसाले के लिए फलियाँ तैयार करते है हरी फसल जब लेना है ३ से४ बार तोड़ाई करना आति आवश्यक है मसाले के लिए जब हम पैदा करते है तो १ से२ बार तोड़ाई करते है I

मिर्च की फसल से प्रति हेक्टर कितनी उपज प्राप्त की जा सकती है?

सामान्य प्रजातियाँ में 100 से 125 कुन्तल प्रति हेक्टर के हिसाब से हरी मिर्च मिलती है, दूसरी संकर प्रजातियाँ में 125 से 150 कुन्तल के हिसाब से हरी मिर्च पैदा होता हैI

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गाजर की उन्नत जैविक खेती

गाजर की उन्नत जैविक खेती

गाजर एक महत्वपूर्ण जड़वाली सब्जी की फ़सल है गाजर की खेती पूरे भारतवर्ष में की जाती है गाजर को कच्चा एवं पकाकर दोनों ही तरह से लोग प्रयोग करते है गाजर में कैरोटीन एवं विटामिन ए पाया जाता है जो कि मनुष्य के शरीर के लिए बहुत ही लाभदायक है नारंगी रंग की गाजर में कैरोटीन की मात्रा अधिक पाई जाती है गाजर की हरी पत्तियो में बहुत ज्यादा पोषक तत्व पाये जाते है जैसे कि प्रोटीन, मिनिरल्स एवं विटामिन्स  आदि जो कि जानवरो को खिलाने पर लाभ पहुचाते है गाजर की हरी पत्तियां मुर्गियों के चारा बनाने में काम आती है गाजर मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, असाम, कर्नाटक, आंध्रा प्रदेश, पंजाब एवं हरियाणा में उगाई जाती हैI

जलवायु

गाजर मूलत ठंडी जलवायु कि फसल है इसका बीज 7.5 से 28 डिग्री सेल्सियस तापमान पर सफलतापूर्वक उग सकता है जड़ों कि बृद्धि और उनका रंग तापमान से बहुत अधिक प्रभावित होता है 15-20 डिग्री तापमान पर जड़ों का आकार छोटा होता है परन्तु रंग सर्वोत्तम होता है विभिन्न किस्मों पर तापमान का प्रभाव - भिन्न भिन्न होता है यूरोपियन किस्मों 4-6 सप्ताह तक 4.8 -10 डिग्री से 0 ग्रेड तापमान को जड़ बनते समय चाहिए .

भूमि 

गाजर की खेती दोमट भूमि में अच्छी होती है. बुआई के समय खेत की मिट्टी अच्छी तरह भुरभुरी होनी चाहिए जिससे जड़ें अच्छी बनती है  भूमि में पानी का निकास होना अतिआवश्यक हैI

भूमि कि तैयारी

 शुरू में खेत को दो बार विक्ट्री हल से जोतना चाहिए , इसके 3-4 जुताइयाँ देशी हल से करें प्रत्येक जुताई के उपरांत पाटा अवश्य लगाएं , ताकि मिटटी भुरभुरी हो जाए 30 सेमी 0 गहराई तक भुरभुरी होना चाहिए 

उत्तम क़िस्में

पूसा केसर

यह लाल रंग की उत्तम गाजर की क़िस्म है. पत्तियाँ छोटी एवं जड़ें लम्बी, आकर्षक लाल रंग केन्द्रीय भाग व संकरा होता है. फ़सल 90-110 दिन में तैयार हो जाती है. पैदावार : 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है.

पूसा

मेघाली : यह नारंगी गूदे, छोटी टॉप तथा कैरोटीन की अधिक मात्रा वाली संकर प्रजाति है. अगेती बुआई, अगस्त-सितम्बर तक इसकी बुआई अक्ठुबर तक कर सकते हैं. मैदान में बीज उत्पन्न होता है. फ़सल बोने के 100-110 दिन में तैयार हो जाती है पैदावार 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है.

पूसा यमदाग्नि

यह प्रजाति आई० ए० आर० आई० के क्षेत्रीय केन्द्र कटराइन द्धारा विकसित की गयी है. इसकी पैदावार 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है.

नैन्टस

इस क़िस्म की जडें बेलनाकार नांरगी रंग की होती है. जड़ के अन्दर का केन्द्रीय भाग मुलायम, मीठा और सुवासयुक्त होता है. 110-112 दिन में तैयार होती है. पैदावार 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है.

बुआई का समय

मैदानी इलाकों में एशियाई क़िस्मों की बुआई अगस्त से अक्टूबर तक और यूरोपियन क़िस्मों की बुआई अक्टूबर से नवम्बर से करते हैं.

बीज की मात्रा

एक हेक्टेअर क्षेत्र के लिए 6-8 कि०ग्रा० बीज की आवश्यकता पड़ती है.

बुआई और दूरी

इसकी बुआई या तो छोटी-छोटी समतल क्यारियों में या 30-40 से०मी० की दूरी पर मेंड पर करते हैं.

निराई-गुड़ाई व सिंचाई

बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए. पहली सिंचाई बीज उगने के बाद करें. शुरू में 8-10 दिन के अन्तर पर तथा बाद के 12-15 दिन के अन्तर पर सिंचाई करें.

खाद और उर्वरक

एक हेक्टेअर खेत में लगभग 25-30 टन सही गोबर की खाद अन्तिम जुताई के समय तथा 30 कि०ग्रा० नाइट्रोजन तथा 30 कि०ग्रा० पौटाश प्रति हेक्टेअर की दर से बुआई के समय डालें. बुआई के 5-6 सप्ताह बाद 30 कि०ग्रा० नाइट्रोजन को टॉप ड्रेसिंग के रूप मे डालें.

 सिंचाई 
बुवाई के बाद नाली में पहली सिंचाई करनी चाहिए जिससे मेंड़ों में नमी बनी रहे बाद में 8 से 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिएI गर्मियों में 4 से 5 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिएI खेत को कभी सूखना नहीं चाहिए नहीं तो पैदावार कम हो जाती हैI

खरपतवार नियंत्रण 

गाजर कि फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते है , जो भूमि में नमी और पोषक तत्व लेते है , जिसके कारण गाजर के पौधों का विकास और बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अत : इन्हें खेत से निकालना अत्यंत आवश्यक हो जाता है निराई करते समय पक्तियों से आवश्यक पौधे निकाल कर मध्य कि दुरी अधिक कर देनी चाहिए बृद्धि करती हुई जड़ों के समीप हल्की निराई गुड़ाई करते रहना चाहिए .

कीट नियंत्रण 

गाजर कि फसल पर निम्न कीड़े मकोड़ों का प्रकोप मुख्य रूप से होता है गाजर कि विविल : छ धब्बे वाला पत्ती का टिड्डा .

रोकथाम 

नीम का काढ़ा  तर बतर कर पम्प द्वारा 10 - 15 दिन के अंतराल पर छिडकाव करे .

रोग नियंत्रण 

आद्र विगलन 

यह रोग पिथियम अफनिड़रमैटम नामक फफूंदी के कारण होता है इस रोग के कारण बिज के अंकुरित होते ही पौधे संक्रमित हो जाते है - कभी कभी अंकुर भूमि से बाहर नहीं निकाल पाता है और बीज  पूरा ही सड जाता है तने का निचला भाग जो भूमि कि सतह से लगा रहता है , सड जाता है फलस्वरूप पौधे वही से टूट कर गिर जाते है पौधों का अचानक गिर पड़ना और सड जाना आद्र विगलन का प्रमुख कारण है  .

रोकथाम

1. बीज को बोने से पूर्व गौ मूत्र से उपचारित करें .

2. हल्की सिंचाई करनी चाहिए .

जीवाणु मृदु सडन और बिगवड रोग 

यह रोग इर्विनिया कैरोटोवोरा नामक जीवाणु फैलता है इस रोग का प्रकोप विशेष रूप से गूदेदार जड़ों पर होता है जिसके कारण जड़े सड़ने लगती है ऐसी भूमियों में जिनमे जल निकास कि अच्छी व्यवस्था नहीं होती है . या निचले क्षेत्र में बोई गई फसल पर यह रोग अधिक लगता है .

रोकथाम 

1. खेत में जल निकास का उचित प्रबंध करना चाहिए .

नीम का  काढ़ा 

25 ग्राम ताजा हरा नीम कि पत्ती तोड़ कर कुचल कर पिस कर किलो 50 लीटर पानी में मिलाकर उबलाते है जब पानी 20 -25 लीटर रह जाये तब उतार कर ठंडाकर आधा लीटर प्रति पम्प पनी में मिलाकर प्रयोग करे .

गौ : मूत्र 

10 लीटर देसी गाय का गौ मूत्र लेकर पारदर्शी कांच के या प्लास्टिक के बर्तन में १५ -२० दिन धुप में रखने के बाद आधा लीटर प्रति पम्प पानी मिलाकर तर बतर कर फसलो पर छिड़काव करे |

खुदाई एवं पैदावार

गाजर की जड़ों की खुदाई तब करनी चाहिए जब वे पूरी तरह विकसित हो जाए. खेत में खुदाई के समय पर्याप्त नमी होनी चाहिए. जड़ों की खुदाई फरवरी में करनी चाहिए. बाजार भेजने से पूर्व जड़ों को अच्छी तरह धो लेना चाहिए. इसकी पैदावार क़िस्म पर निर्भर करती है. एसियाटिक क़िस्में अधिक उत्पादन देती है. पूसा क़िस्म की पैदावार लगभग 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेअर, पूसा मेधाली 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेअर जबकि नैन्टिस क़िस्म की पैदावार 100-112 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है.

फूलगोभी की उन्नत खेती

फूलगोभी की उन्नत खेती

यह भारत की प्रमुख सब्जी है फूलगोभी की खेती पूरे वर्ष में की जाती है। इससे किसान अत्याधिक लाभ उठा सकते है। इसको सब्जी, सूप और आचार के रूप में प्रयोग करते है। इसमे विटामिन बी पर्याप्त मात्रा के साथ-साथ प्रोटीन भी अन्य सब्जियों के तुलना में अधिक पायी जाती है
 
जलवायु 
फूलगोभी के लिए ठंडी और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है यदि दिन अपेक्षाकृत छोटे हों तो फुल की बढ़ोत्तरी अधिक होती है फुल तैयार होने के समय तापमान अधिक होने से फुल पत्तेदार और पीले रंग के हो जाते है अगेती जातियों के लिए अधिक तापमान और बड़े दिनों की आवश्यकता होती है २९.२२-३१.२२ डिग्री सेल्सियस तापमान पौधों के अधिक समुचित विकास और फूलों के उत्तम गणों के लिए सर्वोतम माना गया है फुल गोभी को गर्म दशाओं में उगाने से सब्जी का स्वाद तीखा हो जाता है | फूलगोभी की खेती प्राय: जुलाई से शुरू होकर अप्रैल तक होती है
भूमि 
जिस भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 7 के मध्य हो वह भूमि फुल गोभी के लिए उपयुक्त मानी गई है अगेती फसल के लिए अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी  तथा पिछेती के लिए दोमट या चिकनी मिट्टी उपयुक्त रहती है साधारणतया फुल गोभी की खेती बिभिन्न प्रकार की भूमियों में की जा सकती है  भूमि जिसमे पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद उपलब्ध हो इसकी खेती के लिए अच्छी होती है हलकी रचना वाली भूमि में पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद डालकर इसकी खेती की जा सकती है
 खेत की तयारी 
 पहले खेत को पलेवा करें जब भूमि जुताई योग्य हो जाए तब उसकी जुताई २ बार मिटटी पलटने वाले हल से करें इसके बाद दो बार कल्टीवेटर चलाएँ और प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं |
उन्नतशील प्रजातियां
फूलगोभी की मौसम के आधार पर तीन प्रकार की प्रजातियाँ होती है। जैसे की अगेती, मध्यम और पछेती प्रजातियाँ पायी जाती हैं 
अगेती प्रजातियाँ 
पूसा दिपाली, अर्ली कुवारी, अर्ली पटना, पन्त गोभी- 2, पन्त गोभी- 3, पूसा कार्तिक, पूसा अर्ली सेन्थेटिक, पटना अगेती, सेलेक्सन 327 एवं सेलेक्सन 328 है। 
मध्यम प्रकार की प्रजातियाँ 
पन्त शुभ्रा, इम्प्रूव जापानी, हिसार 114, एस-1, नरेन्द्र गोभी 1, पंजाब जॉइंट ,अर्ली स्नोबाल, पूसा हाइब्रिड 2, पूसा अगहनी, एवं पटना मध्यम, 
पछेती प्रजातियाँ 
स्नोबाल 16, पूसा स्नोबाल 1, पूसा स्नोबाल 2, पूसा के 1, दानिया, स्नोकिंग, पूसा सेन्थेटिक, विश्व भारती, बनारसी मागी, जॉइंट स्नोबालढ्ढ 
कैसे करें पौधे तैयार
स्वस्थ पौधे तैयार करने के लिए भूमि तैयार होने पर 0.75 मीटर चौड़ी, 5 से 10 मीटर लम्बी, 15 से 20 सेंटीमीटर ऊँची क्यारिया बना लेनी चाहिए। दो क्यारियों के बीच में 50 से 60 सेंटीमीटर चौड़ी नाली पानी देने तथा अन्य क्रियाओ करने के लिए रखनी चाहिए। पौध डालने से पहले 5 किलो ग्राम गोबर की खाद प्रति क्यारी मिला देनी चाहिए तथा 10 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश व 5 किलो यूरिया प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से क्यारियों में मिला देना चाहिए। पौध 2.5 से 5 सेन्टीमीटर दूरी की कतारों में डालना चाहिए। क्यारियों में बीज बुवाई के बाद सड़ी गोबर की खाद से बीज को ढक देना चाहिए। इसके 1 से 2 दिन बाद नालियों में पानी लगा देना चाहिए या हजारे से पानी क्यारियों देना चाहिए।
कैसे करें बीज बुवाई
एक हेक्टेयर खेत में 450 ग्राम से 500 ग्राम बीज की बुवाई करें। पहले 2 से 3 ग्राम कैप्टन या ब्रैसिकाल प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधित कर लेना चाहिए। इसके साथ ही साथ 160 से 175 मिली लीटर को 2.5 लीटर पानी में मिलकर प्रति पीस वर्ग मीटर के हिसाब नर्सरी में भूमि शोधन करना चाहिए।
फूलगोभी की रोपाई
फसल समय के अनुसार रोपाई एवं बुवाई की जाती है। जैसे अगेती में मध्य जून से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक पौध डालकर पौध तैयार करके 45 सेन्टी मीटर पंक्ति से पंक्ति और 45 सेंटी मीटर पौधे से पौधे की दूरी पर पौध डालने के 30 दिन बाद रोपाई करनी चाहिए। मध्यम फसल में अगस्त के मध्य में पौध डालना चाहिए। पौध तैयार होने के बाद पौध डालने के 30 दिन बाद 50 सेंटी मीटर पंक्ति से पंक्ति और 50 सेन्टीमीटर पौधे से पौधे दूरी पर रोपाई करनी चाहिए। पिछेती फसल में मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक पौध डाल देना चाहिए। 30 दिन बाद पौध तैयार होने पर रोपाई 60 सेन्टीमीटर पंक्ति से पंक्ति और 60 सेन्टीमीटर पौधे से पौधे की दूरी पर रोपाई करनी चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
फुल गोभी कि अधिक उपज लेने के लिए भूमि में पर्याप्त मात्रा में खाद डालना अत्यंत आवश्यक है मुख्य मौसम कि फसल को अपेक्षाकृत अधिक पोषक तत्वों कि आवश्यकता होती है इसके लिए एक हे. भूमि में ३५-४० क्विंटल गोबर कि अच्छे तरीके से सड़ी हुई खाद एवं 1 कु. नीम की खली डालते है रोपाई के 15 दिनों के बाद वर्मी वाश का प्रयोग किया जाता है 
रासायनिक खाद का प्रयोग करना हो  120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 60 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रयोग करना चाहिए

सिचाई 
रोपाई के तुरंत बाद सिचाई करें अगेती फसल में बाद में एक सप्ताह के अंतर से, देर वाली फसल में १०-१५ दिन के अंतर से सिचाई करें यह ध्यान रहे कि फुल निर्माण के समय भूमि में नमी कि कमी नहीं होनी चाहिए |
खरपतवार नियंत्रण 
फुल गोभी कि फसल के साथ उगे खरपतवारों कि रोकथाम के लिए आवश्यकता अनुसार निराई- गुड़ाई करते रहे चूँकि फुलगोभी उथली जड़ वाली फसल है इसलिए उसकी निराई- गुड़ाई ज्यादा गहरी न करें और खरपतवार को उखाड़ कर नष्ट कर दें |
कीट नियंत्रण

कैबेज मैगेट
यह जड़ों पर आक्रमण करता है जिसके कारण पौधे सुख जाते है |
रोकथाम 
इसकी रोकथाम के लिए खेत में नीम कि खाद का प्रयोग करना चाहिए |
चैंपा
यह कीट पत्तियों और पौधों के अन्य कोमल भागों का रस चूसता है जिसके कारण पत्तिय पिली पड़ जाती है |
रोकथाम 
इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा को गोमूत्र के साथ मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर 750 मि. ली. मिश्रण को प्रति पम्प के हिसाब से फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
ग्रीन कैबेज वर्म 
ये दोनों पत्तियों को खाते है जिसके कारण पत्तियों कि आकृति बिगड़ जाती है |
रोकथाम :-
इसकी रोकथाम के लिए  गोमूत्र नीम का तेल मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर 500 मि. ली. मिश्रण को प्रति पम्प के हिसाब से फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
डाईमंड बैकमोथ
यह मोथ भूरे या कत्थई रंग के होते है जो १ से. मि. लम्बे होते है इसके अंडे ०.५-०.८ मि. मी. व्यास के होते है इनकी सुंडी १ से. मी. लम्बी होती है जो पौधों कि पत्तियों के किनारों को खाती है |
रोकथाम 
इसकी रोकथाम के लिए  गोमूत्र नीम का तेल मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर 500 मि. ली. मिश्रण को प्रति पम्प के हिसाब से फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें 

बिमारियों  रोकथाम के लिए बीज को बोने से पूर्व गोमूत्र , कैरोसिन या नीम का तेल से बीज को उपचारित करके बोएं |

गोभी वर्षीय फसलों को ऐसे क्षेत्र में उगाना नहीं चाहिए जिनमे इन रोगों का प्रकोप हो रहा हो सरसों वाले कुल के पौधों को इसके पास न उगायें |
कटाई 
फुल गोभी कि कटाई तब करें जब उसके फुल पूर्ण रूप से विक़सित हो जाएँ फुल ठोस और आकर्षक होना चाहिए जाति के अनुसार रोपाई के बाद अगेती ६०-७० दिन, मध्यम कटाई
फुल गोभी कि कटाई तब करें जब उसके फुल पूर्ण रूप से विक़सित हो जाएँ फुल ठोस और आकर्षक होना चाहिए जाति के अनुसार रोपाई के बाद अगेती ६०-७० दिन, मध्यम ९०-१०० दिन , पछेती ११०-१८० दिन में कटाई के लिए तैयार हो जाती है |
उपज 
यह प्रति हे. २००-२५० क्विंटल तक उपज मिल जाती है |
भण्डारण
फूलों में पत्तियां लगे रहने पर ८५-९० % आद्रता के साथ १४.२२ डिग्री सेल्सियस तापमान पर उन्हें एक महीने तक रखा जा सकता है ||

मटर की उन्नत खेती

मटर की उन्नत खेती 

शीतकालीन सब्जियो मे मटर का स्थान प्रमुख है। इसकी खेती हरी फल्ली (सब्जी), साबुत मटर, एवं दाल के लिये किया जाता है।  मटर की खेती सब्जी और दाल के लिये उगाई जाती है। मटर दाल की आवश्यकता की पूर्ति के लिये पीले मटर का उत्पादन करना अति महत्वपूर्ण है, जिसका प्रयोग दाल, बेसन एवं छोले के रूप में अधिक किया जाता है ।आजकल मटर की डिब्बा बंदी भी काफी लोकप्रिय है। इसमे प्रचुर मात्रा मे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फास्फोरस, रेशा, पोटेशियम एवं विटामिन्स पाया जाता है। देश भर मे इसकी खेती व्यावसायिक रूप से की जाती है।

जलवायु 

मटर की फसल के लिए नम और ठंडी जुलाई की आवश्यकता होती है अत: हमारे देश में अधिकांश स्थानों पर मटर की फसल रबी  की ऋतु में गई जाती है  इसकी बीज अंकुरण के लिये औसत 22 डिग्री सेल्सियस एवं अच्छी वृद्धि एवं विकास के लिये 10-18 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। यदि फलियो के निर्माण के समय गर्म या शुष्क मौसम हो जाये तो मटर के गुणो एवं उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।उन सभी स्थानों पर जहां वार्षिक वर्षा 60-80 से.मी. तक होती है मटर की फसल सफलता पूर्वक उगाई जा सकती है मटर के वृद्धि काल में अधिक वर्षा का होना अत्यंत हानिकारक होता है |

भूमि 

इसकी सफल खेती के लिये उचित जल निकास क्षमता वाली, जीवांश पदार्थ मृदा उपयुक्त मानी जाती है। जिसका पी.एच.मान. 6-7.5 हो तो अधिक उपयुक्त होती है।मटियार दोमट तथा दोमट भूमि मटर की खेती के लिए अति उत्तम है बलुअर दोमट भूमियों में भी सिचाई की सुबिधा उपलब्ध होने पर मटर की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है कछार क्षेत्रों की भूमियाँ भी पानी सूख जाने के पश्चात् भी मटर की खेती करने योग्य नहीं होती है  |

प्रजातियाँ 

फील्ड मटर

 इस वर्ग के किस्मो का उपयोग साबुत मटर, दाल के लिये, दाने एवं चारे के लिये किया जाता है। इन किस्मो मे प्रमुख रूप से रचना, स्वर्णरेखा, अपर्णा, हंस, जे.पी.-885, विकास, शुभा्र, पारस, अंबिका आदि है।

गार्डन मटर

 इस वर्ग के किस्मो का उपयोग सब्जियो के लिये किया जाता है। 

अगेती किस्मे (जल्दी तैयार होने वाली)

आर्केल 
यह यूरोपियन अगेती किस्म है इसके दाने मीठे होते है इसमें बुवाई के ५५-६५ दिन बाद फलियाँ तोड़ने योग्य हो जाती है इसकी फलियाँ ८-१० से.मी. लम्बी एक समान होती है प्रत्येक फली में ५-६ दाने होते है हरी फलियों की ७०-१०० क्विंटल उपज मिल जाती है इसकी फलियाँ तीन बार तोड़ी जा सकती है इसका बीज झुर्री दार होता है |
बोनविले 
यह जाति अमेरिका से लाई गई है इसका बीज झुर्री दार होता है यह मध्यम उचाई की सीधे उगने वाली जाति है यह मध्यम समय में तैयार होने वाली जाति है इसकी फलियाँ बोवाई के ८०-८५ दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है फूल की शाखा पर दो फलियाँ लगती है इसकी फलियों की औसत पैदावार १३०-१४० क्विंटल प्रति हे. तक प्राप्त होती है |
अर्ली बैजर
यह किस्म संयुक्त राज्य अमेरिका से लाई गई है यह अगेती किस्म है बुवाई के ६५-७० दिन बाद इसकी फलियाँ तोड़ने केलिए तैयार हो जाती है फलियाँ हलके हरे रंग की लगभग ७ से.मी. लम्बी तथा मोटी होती है दाने आकार में बड़े ,  मीठे व झुर्रीदार होते है हरी फलियों की औसत उपज ८०-१०० क्विंटल प्रति हे. होती है |
अर्ली दिसंबर
टा. १९ व अर्ली बैजर के संस्करण से तैयार की गई है यह अगेती किस्म है ५५-६० में तोड़ने के लिए तैयार हो जाती है फलियों की लम्बाई ६-७ से.मी. व रंग गहरा हरा होता है हरी फलियों की औसत उपज ८०-१०० क्विंटल प्रति हे. हो जाती है |
असौजी
यह एक अगेती बौनी किस्म है इसकी फलियाँ बोवाई के ५५-६५ दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है इसकी फलियाँ गहरे हरे रंग की ५-६ से. मी. लम्बी व दोनों सिरे से नुकीली , लम्बी होती है प्रत्येक फली में ५-६ दाने होते है हरी फलियों की औसत उपज ९०-१०० क्विंटल प्रति हे. होती है |
पन्त उपहार
इसकी बुवाई २५ अक्टूम्बर से १५ नवम्बर तक की जाती है और इसकी फलियाँ बुवाई से ६५-७५ दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है |
जवाहर मटर 
 इसकी फलियाँ बुवाई से ६५-७५ दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है यह मध्यम किस्म है फलियों की औसत लम्बाई ७-८ से. मी. होती है और प्रत्येक फली में ५-८ बीज होते है फलियों में दाने ठोस रूप में भरे होते है हरी फलियों की औसत पैदावार १३०-१४० क्विंटल प्रति हे. होती है |
मध्यम किस्मे
T9
यह भी मध्यम किस्म है इसकी फलियाँ ७५ दिन में तोड़ने लायक हो जाती है फसल अवधि १२० दिन है पौधों का रंग गहरा हरा फूल सफ़ेद व बीज झुर्रीदार व हल्का हरापन लिए हुए सफ़ेद होते है फलियों की पैदावार ८०-१०० क्विंटल प्रति हे. पैदावार होती है |
T56
यह भी मध्यम अवधि की किस्म है पौधे हलके हरे , सफ़ेद बीज झुर्रेदार होते है हरी फलियाँ ७५ दिन में तोड़ने लायक हो जाती है प्रति हे. ८०-९० क्विंटल हरी फलियाँ प्राप्त हो जाती है |
NP29
यह भी अगेती किस्म है फलियाँ ७५-८५ दिन में तोड़ने लायक हो जाती है इसकी फसल अवधि १००-११० दिन है बीज झुर्रीदार होते है हरी फलियों की औसत पैदावार १००-१२० क्विंटल प्रति हे. है |
पछेती किस्मे (देरी से तैयार होने वाली):- ये किस्मे बोने के लगभग 100-110 दिनो बाद पहली तुड़ाई करने योग्य हो जाती है जैसे- आजाद मटर-2, जवाहर मटर-2 आदि।      

बीज 

 अगेती किस्मो के लिये 100 कि.ग्रा. एवं मध्यम व पछेती किस्मो के लिये 80 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर लगता है। बीज सदैव प्रमाणित एवं उपचारित बोना चाहिए बीज को बोने से पहले नीम का तेल या गौमूत्र या कैरोसिन से उपचारित कर बुवाई करें |
बीज एवं अंतरण :-
प्राय: मटर शुद्ध फसल या मिश्रित के रूप में ली जाती है  इसकी बुंवाई हल के पीछे कूड़ो मे या सीड ड्रील द्वारा की जाती है। बुबाई के समय  ३०-४५ से.मी पंक्ति से पंक्ति तथा १०-१५ से.मी. पौध से पौध की दूरी तथा  ५-७ से.मी. गहराई पर बोते है |
बोने का समय 
 उत्तरी भारत में दाल वाली में मटर की बुवाई का उत्तम समय १५-३० अक्टूम्बर तक है  फलियों सब्जी के लिए बुवाई २० अक्टूम्बर से १५ नवम्बर तक करना लाभदायक है |

खाद एवं उर्वरक

मटर की फसल में अच्छी तरह से पैदावार लेने के लिए एक एकड़  भूमि में 10-15  क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से सड़ी हुई खाद और नीम की खली को खेत में समान रूप से बखेर कर जुताई के समय मिला देना चाहिए ट्राईकोडरमा 25 किलो एकड़ के अनुपात से खेत में मिलाना चाहिए लेकिन याद रहे कि खेत में पर्याप्त नमी हो बुबाई के 15-20 दिन बाद वर्मिवाश  का अच्छी तरह से छिड्काब करें ताकि पोधा तर बतर हो जाये निराई के बाद जीवामृत का छिड्काब कर दें  फूल आनें के समय नीम और करंज को गोमूत्र में मिलाकर छिद्काब कर दें 
जब फसल फूल पर हो या समय हो रहा हो तो एमिनो असिड एवं पोटाशियम होमोनेट की मात्रा स्प्रे के द्वारा देनी चाहिए 15 दिनों के बाद एमिनो असिड पोटाशियम होमोनेट फोल्विक एसिड को मिला कर छिडक देना चाहिए नमी बनी रहे इसका ध्यान रखें 
यदि रासायनिक खाद का प्रयोग करते है तो  गोबर या कम्पोस्ट खाद (10-15 टन/हे.) खेत की तैयारी के समय देवें। चूंकि यह दलहनी फसल है इसलिये इसका जड़ नाइट्रोजन स्थिरीकरण का कार्य करता है अतः फसल को कम नाइट्रोजन देने की आवश्यकता पड़ती है। रासायनिक खाद के रूप मे 20-25 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 40-50 कि.ग्रा. फाॅस्फोरस एवं 40-50 कि.ग्रा. पोटाश/हे. बीज बुंवाई के समय ही कतारों में दिया जाना चाहिये। यदि किसान उर्वरको की इस मात्रा को यूरिया, सिंगल सुपर फाॅस्फेट एवं म्यूरेट आफ पोटाश के माध्यम से देना चाहता है तो 1 बोरी यूरिया, 5 बोरी सिंगल सुपर फास्फेट एवं 1.5 बोरी म्यूरेट आफ पोटाश प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है।
सिचाई 
मटर की देशी व उन्नत शील जातियों में दो सिचाई की आवश्यकता पड़ती है शीतकालीन वर्षा हो जाने पर दूसरी सिचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती पहली सिचाई फूल निकलते समय बोने के ४५ दिन बाद व दूसरी सिचाई आवश्यकता पड़ने पर फली बनते समय बीज बोने के ६० दिन बाद करें साधारणतया मटर को हल्के  पानी की आवश्यकता होती है सिचाई सदैव हलकी करनी चाहिए |

खरपतवार 

मटर की फसल के प्रमुख खरपतवार है - बथुआ , गजरी, चटरी-मटरी , सैजी , अंकारी  इन सब खरपतवारों को निराई-गुड़ाई करके फसल से बाहर निकाला जा सकता है। फसल बोने के ३५-४० दिन तक फसल को खरपतवारों से बचाना आवश्यक है आवश्यकतानुसार एक या दो निराई बोने के ३०-३५ दिन बाद करनी चाहिए |
कीट नियंत्रण
तना छेदक 
यह काले रंग की मक्खी होती है इसकी गिडारें फसल की प्रारंभिक अवस्था  में छेद कर अन्दर से खाती है जिसमे पौधे सूख जाते है |
रोकथाम 
10 लीटर गोमूत्र रखना चाहिए। इसमें ढाई किलोग्राम नीम की पत्ती को छोड़कर इसे 15 दिनों तक गोमूत्र में सड़ने दें। 15 दिन बाद इस गोमूत्र को छान लें फिर छिड़काव करें  |
पत्ती में सुरंग बनाने वाले कीट 
इस कीट का आक्रमण पौधे की प्रारंभिक अवस्था में ही शुरू हो जाता है इसकी गिडारे पत्तियों में ही सुरंग बनाकर कोशिकाओं को खा जाती है यह सुरंग पत्तियों पर दिखाई देती है |
रोकथाम
४०-50 दिन पुराना 15 लीटर गोमूत्र को तांबे के बर्तन में रखकर 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों एवं तने के साथ उबालें 7.5 लीटर गोमूत्र शेष रहने पर इसे आग से उतार कर ठंडा करें एवं छान लें फिर फसल में तर-बतर कर छिड़काव करें  |
फली छेदक 
देर से बोई गई फसल में इस कीट का आक्रमण अधिक होता है इस कीट की सुंडियां फली में छेद करके उनके अन्दर तक पूर्णतया प्रवेश कर जाती है और दोनों को खाती रहती है |
 रोकथाम 
मदार की 5 किलोग्राम पत्ती 15 लीटर गोमूत्र में उबालें। 7.5 लीटर मात्रा शेष रहने पर छान लें फिर फसल में तर-बतर कर छिड़काव करें  |
माहू 
इस कीट का प्रकोप जनवरी के बाद प्राय: होता है |
रोकथाम 
10 लीटर गोमूत्र रखना चाहिए। इसमें ढाई किलोग्राम नीम की पत्ती को छोड़कर इसे 15 दिनों तक गोमूत्र में सड़ने दें। 15 दिन बाद इस गोमूत्र को छान लें फिर छिड़काव करें  |
रोग नियंत्रण 
बुकनी 
इसे चित्ती या चूर्णी रोग कहते है पतियाँ , फलियाँ तथा तने पर सफ़ेद चूर्ण सा फैलता है और बाद में पत्तियां आदि काली होकर मरने लगती है |
रोकथाम 
10 लीटर गोमूत्र रखना चाहिए। इसमें ढाई किलोग्राम नीम की पत्ती को छोड़कर इसे 15 दिनों तक गोमूत्र में सड़ने दें। 15 दिन बाद इस गोमूत्र को छान लें फिर छिड़काव करें  |
उकठा
इस रोग की प्रारंभिक अवस्था में पौधों की पत्तियां नीचे से ऊपर की ओर पीली पड़ने लगती है और पूरा पौधा सूख जाता है यह बीज जनित रोग है फलियाँ बनती नहीं है |
रोकथाम 
जिस खेत एक बार मटर में इस बीमारी का प्रकोप हुआ हो उस खेत में ३-४ वर्षों तक यह फसल नहीं बोना चाहिए और तंबाकू की 2.5 किलोग्राम पत्तियां ढार्इ किलो आक या आँकड़ा तथा  5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों  को 10 लीटर गोमूत्र में उबालें और 5 लीटर मात्रा शेष रहने पर छान लें फिर फसल में तर-बतर कर छिड़काव करें  |
तुलासिता 
इस रोग में पत्तियों की उपरी सतह पर प्रारंभिक अवस्था में पीले रंग के धब्बे दिखाई देते है जिसके नीचे सफ़ेद रुई के समान फफूंदी की वृद्धि दिखाई देती है |
रोकथाम :
इसकी रोकथाम के लिए 10 लीटर गोमूत्र रखना चाहिए। इसमें ढाई किलोग्राम नीम की पत्ती को छोड़कर इसे 15 दिनों तक गोमूत्र में सड़ने दें। 15 दिन बाद इस गोमूत्र को छान लें फिर फसल में तर-बतर कर छिड़काव करें  
सफ़ेद विगलन 
यह रोग पर्वतीय क्षेत्र में व्यापक रूप से फैलता है इस रोग से पौधों के सभी वायवीय भाग रोग से ग्रसित हो जाते है जिससे पूरा पौधा सफ़ेद रंग का होकर मर जाता है पौधे के रोग ग्रस्त भागों पर सफ़ेद रंग की फफूंदी उग जाती है और बाद में रोग ग्रस्त भागों में ऊपर तथा अन्दर काले रंग के गोल दाने बन जाते है |
रोकथाम 
फसल की बुवाई नवम्बर के प्रथम सप्ताह से पहले नहीं करनी चाहिए , जिस खेत में इस रोग का प्रकोप पिछले सालों अधिक देखने को मिला हो उसमे कम से कम 5 वर्षों तक मटर तथा अन्य दलहनि फसले न बोई जाएँ और तंबाकू की 2.5 किलोग्राम पत्तियां ढार्इ किलो आक या आँकड़ा तथा  5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों  को 10 लीटर गोमूत्र में उबालें और 5 लीटर मात्रा शेष रहने पर छान लें फिर फसल में तर-बतर कर छिड़काव करें |
झुलसा (आल्टरनेरिया ब्लाईट )
सभी वायवीय भाग पर इसका प्रकोप होता है  सर्व प्रथम नीचे की पत्तियों पर किनारे से भूरे रंग के धब्बे बनत है |
रोकथाम 
मदार की 5 किलोग्राम पत्ती 15 लीटर गोमूत्र में उबालें। 7.5 लीटर मात्रा शेष रहने पर छान लें फिर फसल में तर-बतर कर छिड़काव करें |

उपज

हरी फलियों की पैदावार ८०-१२० क्विंटल प्रति हे. तक प्राप्त हो जाती है फलियाँ तोड़ने के पश्चात् कुल १५० क्विंटल तक हरा चारा  प्राप्त हो जाता है |

भंडारण

ताजे बिना छिले मटर को 0 डिग्री सेल्सियस तापक्रम एवं 90-95 प्रतिशत सापेक्षिक आद्रता पर 2 सप्ताह तक भंडारित किया जा सकता है।

अमर कान्त 

लेखक एक उन्नतशील किसान है

खीरा की उन्नत खेती

खीरा की उन्नत खेती

जलवायु :-

खीरा विश्व की शीतोष्ण एवं उपशीतोष्ण क्षेत्रों में उगाया जाता है और यहाँ की एक लोकप्रिय सब्जी है खीरे की फसल अल्प कालीन होती है जो अपना जीवन चक्र ६०-८० दिनों में पूरा कर लेती है यह पाला सहन नहीं कर सकता है और विशेष ठंडक में विकास अवरुद्ध हो जाता है और अधिक वर्षा , आद्रता और बादल सहने से कीट एवं रोगों के प्रसारण में वृद्धि हो जाती है खीरा प्रकाश एवं तापमान के घटाव -चढ़ाव से अत्यंत प्रभावित होता है प्रकाश और तापमान की अधिकता और लम्बे प्रकाश काल में नर फुल अधिक आते है और मादा फूलों की संख्या काफी कम हो जाती है जिसका उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है खीरे में वर्षाकालीन फसल में फलन अधिक होता है |

भूमि :-

खीरे को सभी प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है फिर भी दोमट और रेतीली दोमट इसके लिए विशेष उपयुक्त होती है मिटटी में जैविक पदार्थ प्रचुर मात्रा में होना चाहिए और जल निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए इसे साधारण अम्लीय से साधारण क्षारीय मृदाओं में भी उगाया जा सकता है और अत्यधिक अम्लीय एवं क्षारीय मिटटी में पौधे ठीक से नहीं पनपते है खेत में पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करनी चाहिए प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लगाकर मिटटी को भुरभुरा एवं समतल करना चाहिए |

प्रजातियाँ :-

उनत किस्मे :-

विदेशों में प्रविष्टित किस्में हमारे देश में उगाने के लिए अनुशंसित की गई है उनके चारित्रिक गुणों का उल्लेख नीचे किया गया है |

जापानी लौंग ग्रीन :-

यह एक अगेती किस्म है जो ४५ दिन में तैयार हो जाती है इसके फल ३०-४० से.मी. लम्बे और हरे रंग के होते है गुदा हल्का हरा और कुरकुरा होता है |

चयन :-

यह अधिक उपज देने वाली और मध्यम पछेती कठोर किस्म है इसके फल ५० से.मी. लम्बे , सीधे और बेलनाकार होते है छिलका हरे रंग का होता है जिस पर सफ़ेद कांटे होते है गुदा सफ़ेद एवं कुरकुरा होता है |

स्ट्रेट एट :-

यह एक अगेती किस्म है फल साधारण लम्बे मोटे , सीधे और बेलनाकार होते है छिलका हरे रंग का होता है |

पोइनसट :-

यह किस्म साधारण लम्बी , सीधी एवं गहरे हरे रंग की होती है यह किस्म मृदुरोमिल रोग की प्रतिरोधी है |

भारतीय किस्मे :-

खीरा , पंजाब सेलेक्शन , पूना खीरा , 

संकर किस्मे :-

इसे जापानी किस्म कागा ओमेगा पुशिनावी और इटावली  किस्म ग्रीन्लेंड आफ नेपल्स के संकरण से निकाला गया है फल २२-३० से.मी. लम्बे और बेलनाकार हरे गहरे रंग के जिन पर पीले कांटे होते है गुदा कुरकुरा होता है यह अधिक उपज देने वाली किस्म है |

प्रिया :-

इस किस्म का विकास इंडो - अमेरिका हाईब्रिड सीड कंपनी बंगलौर द्वारा किया गया है यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है |

नवीनतम किस्मे :-

पी.सी.यू.एच. १ :-

पूसा उदय :-

इस किस्म का विकास कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है फल हलके हरे व चिकने होते है इस किस्म को बसंत-ग्रीष्म और बर्षा ऋतु दोनों में उगाया जा सकता है पोइन सेट नामक किस्म से ३६ % अधिक उपज देती है यह प्रति हे. १०.५-११.० टन उपज दे देती है |

स्वर्ण पूर्णा :-

इस किस्म का विकास केन्द्रीय बागवानी परीक्षण केंद्र रांची द्वारा किया गया है मध्यम आकार युक्त ठोस फल , चूर्णी फफूंदी के लिए सहन शील यह प्रति हे. ३००-३५० क्विंटल उपज दे देती है |

स्वर्ण शीतल :-

इस किस्म का विकास केन्द्रीय बागवानी परीक्षण केंद्र रांची द्वारा किया गया है मध्यम आकार युक्त ठोस फल चूर्णी फफूंदी एन्थ्रेक्नोज रोगों के प्रति रोधी यह प्रति हे. २५०-३०० क्विंटल मिल जाती है |

बीज बुवाई :-

खीरे की खेती योग्य किस्में मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त की जाती है यथा ग्रीष्मकालीन और बरसाती किस्मे ग्रीष्मकालीन किस्मों के पौधे फैलने वाले होते है और घर्किन कहलाते है बरसाती किस्मों के फल बड़े होते है और वे किस्मे पुरे भारत में उगाई जाती है मैदानी भागों में गर्मी की फसल की बुवाई जनवरी - मार्च तक की जाती है बरसाती फसल के लिए जून-जुलाई उपयुक्त है पाला रहित क्षेत्रों में खीरे की बुवाई अक्टूम्बर में की जाती है जिसके कारण मार्च में अगेती फसल प्राप्त हो जाती है नाथ (१९६५) ने पाले से बचने के  लिए इसकी बुवाई बिभिन्न तिथियों और गहराई पर करने की सलाह दी गई  है  इससे यदि पहली बुवाई की फसल पाले से नष्ट भी हो जाए तो भी दूसरी-तीसरी फसल सुरक्षित रह जाती है खीरे में बीज दर गहराई और पौधों की दुरी नीचे दी गई है -

बीज दर -

 २.५- ३.७ किलो ग्राम 

पंक्ति से पंक्ति की दुरी - 

१५० से.मी. 

पौध से पौध की दुरी -

 ६०-९० से. मी. 

बीज की गहराई - 

१.० से.मी. 

बरसात के दिनों में खीरे को उचे थाले में लगाते है प्रत्येक थाले में ३-४ बीज बोते है बाद में एक-दो पौध को ही रहने देते है |

आर्गनिक खाद :-

खीरे की भरपूर उपज और अच्छा उत्पादन लेने के लिए उसमे आर्गनिक खाद , कम्पोस्ट खाद का होना नितांत आवश्यक है इसके लिए एक हे. भूमि में ४०-५० क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से सड़ी हुई खाद और आर्गनिक खाद २ बैग भू-पावर वजन ५० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो फर्टी सिटी कम्पोस्ट वजन ४० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो नीम वजन २० किलो ग्राम , २ बैग सुपर गोल्ड कैल्सी फर्ट वजन १० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो भू-पावर वजन १० किलो ग्राम और ५० किलो अरंडी की खली इन सब खादों को अच्छी तरह मिलाकर खेत में समान मात्रा में बिखेर कर जुताई कर खेत तैयार करे बुवाई या रोपाई करे |

जब फसल २० - २५ दिन की हो जाये तो माइक्रो झाइम ५ ०० मी. लीटर और २ किलो सुपर गोल्ड मैग्नीशियम   ४० ० - ५०० लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर छिड़काव करते है इस तरह यह क्रिया लगातार २० - २५ दिन बाद दुहराते रहते है |

सिचाई :-
खीरे की गर्मियों में २-३ दिन के अंतर पर सिचाई करनी चाहिए |
खरपतवार नियंत्रण :-
लता की वृद्धि की प्रारंभिक अवस्था निराई-गुड़ाई करने से पौधों का अच्छा विकास होता है  और फलन भी अधिक होता है लता की पूर्व वृद्धि हो जाने पर बड़े-बड़े खरपतवारों को हाथ से उखाड़ देना चाहिए |
कीट नियंत्रण :-
एफिड :-
 ये अत्यंत छोटे - छोटे हरे रंग के कीट होते है जो पौधों के कोमल भागों में रस चूसते है इन कीटों की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि होती है यह विषाणु फैलने का काम भी करते है पत्तियां पीली पड़ जाती है और इनके ओज पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ता है |
रोकथाम :-
इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |
फल की मक्खी :-
डेकस  वंश की कुछ मक्खियाँ अनेक बेल वर्गीय सब्जियों को  उनकी बिभिन्न अवस्थाओं में क्षति पहुंचाती है फल की मक्खी का आकार घरेलु मक्खी की तरह होता है यह फलों में छिद्र करके अंडे देती है जो फल के अन्दर ही फूटते है और उनसे निकले मैगट फल के अन्दर ही वृद्धि करते रहते है यह फल के गुदे से अपना भोजन प्राप्त करते है कीट ग्रस्त फल विकृत हो जाते है या सड़ जाते है   |
 
रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

रेड पम्पकिन बीटिल :-

यह लाल रंग का ५-८ से. मी. लम्बा कीट है जो बेल वर्गीय सभी सब्जियों को क्षति पहुंचाता है फसलों के अंकुरण के तुरंत बाद क्षति पहुंचाता है यह पत्तियों के बिच का भाग खाता है |

रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

एपिलैकना बीटिल :-

इसके शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही बेल वर्गीय सब्जियों पर आक्रमण करते है इनका आक्रमण पत्तियों पर होता है और शिशु पत्तियों के बिच के हर भाग को खा जाते है और इसे फीते के रूप में बना देते है |

रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

रोग नियंत्रण :-

विषाणु रोग :-

खीरे पर मोजैक विषाणु का आक्रमण मुख्य रूप से होता है रोग के प्रभाव से पत्तियों पर पीले धब्बे पड़ जाते है और पत्तियां सिकुड़ जाती है अंत में पत्तियां पीली होकर सुख जाती है फलों पर हलकी कर्बुरण से लेकर मस्सेदार वृद्धि तक दिखाई पड़ती है फल आकार में छोटे टेढ़े - मेढ़े , प्राय सफ़ेद और कम संख्या में बनते है यह रोग मुख्य रूप से एफिड व सफ़ेद मक्खियों द्वारा फैलता है |

 रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

मृदुरोमिल रोग :-

यह रोग स्यूडोपरोनोस्पोरा क्यूबेन्सिस  नामक फफूंदी के कारण होता है यह रोग अत्यधिक गर्मी , वर्षा व नमी वाले क्षेत्रों में होता है रोग ग्रस्त पौधों की पत्तियों के उपरी भाग पर पीले धब्बे और निचले भाग पर बैंगनी रंग कर धब्बे दिखाई पड़ते है उग्र रूप में तना और संजनी पर भी आक्रमण होता है पत्तियां सुखकर गिर जाती है |

रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

एन्थ्रेक्नोज :-

यह रोग कोलेटोट्राईकम जाति की फफुन्दियों द्वारा होता है गर्म और नए मौसम में रोग का प्रकोप अधिक होता है इस रोग में फलों और पत्तों पर धब्बे पड़ जाते है खीरे में लाल भूरे सूखे धब्बे बनते है जिसके कारण पत्तियां झुलसी हुई प्रतीत होती है |

रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

चूर्णिल असिता :-

यह रोग ऐरीसाइफी सिकोरेसिएरम नामक फफूंदी के कारण होता है इसका आक्रमण मुख्य रूप से खीरा, लौकी , तरबूज, ककड़ी पर होता है इस रोग में पुरानी पत्तियों की निचली सतह पर सफ़ेद धब्बे उभार आते है धीरे-धीरे इन धब्बो की संख्या और आकार में वृद्धि हो जाती है बाद में पत्तियों के दोनों ओर सफ़ेद पावडर जैसी तह जम जाती है पत्तियों के अलावा तना , फुल व फल पर भी आक्रमण होता है पत्तियों की सामान्य वृद्धि रुक जाती है और पीली पड़ जाती है यह रोग सूखे मौसम में अधिक होता है |

रोकथाम :-

इनकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर २५० मि.ली.को प्रति पम्प द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |

तुड़ाई :-

फसल बुवाई के दो माह बाद तैयार हो जाती है फसल तैयार हो जाने पर २-३ दिन के अंतर पर २ माह की अवधि तक तोड़े जा सकते है |

उपज :-

खीरे की प्रति हे. उपज ८०-१०० क्विंटल तक हो जाती है