रविवार, 24 अक्टूबर 2021

Late Blight

Potato Diseases

Late Blight

Late blight is the most serious potato disease worldwide, is caused by a water mould, called Phytophthora infestans. They destroy leaves, stems, and tubers. Late blight starts its symptoms as “water-soaked” spots on the leaves. Then these areas expand into gray-black “scorched” areas sometimes with dotted white mold growth, especially on the underside of the leaves. Cut stems show a dark circle of infected tissue.

Late blight spreads rapidly, turning plants black, as if badly frosted. Late blight can kill an entire planting in ten days unless stopped by hot dry weather.

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शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2021

गांठ गोभी की खेती

गांठ गोभी की खेती

गांठ गोभी में एन्टी एजिंग तत्व होते हैं। इसमे विटामिन बी पर्याप्त मात्रा के साथ-साथप्रोटीन भी अन्य सब्जियों के तुलना में अधिकपायी जाती है उत्पति स्थल मूध्य सागरीय क्षेत्र औरसाइप्रस में माना जाता है। पुर्तगालियों द्वारा भारत में लाया गया।  जिसका उत्पादन देश के प्रत्येक प्रदेश में किया जाता है । गांठ गोभी में विशेष मनमोहक सुगन्ध ‘सिनीग्रिन’ ग्लूकोसाइड के कारण होतीहै। पोष्टिक तत्वों से भरपूर होती है। इसमेंप्रचुर मात्रा में विटामिन ‘ए’ और ‘सी’ तथा कैल्शियम, फास्फोरस खनिज होते है। जलवायु यह ठन्डे मौसम की फसल है इसकी अन्य जलवायु सम्बन्धी आवश्यकताएं फूलगोभी की तरह  ही है उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों में इसकी खेती शरद कालीन फसल के रूप में की खेती की जाती है लेकिन दक्षिणी भारत में इसे खरीफ के मौसम में उगाया जाता है |भूमि जिस भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 7 के मध्य हो वहभूमि गांठ गोभी के लिए उपयुक्त मानी गई है अगेती फसल के लिए अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी  तथा पिछेती के लिए दोमट या चिकनी मिट्टी उपयुक्त रहती है साधारणतया गांठ गोभी की खेती बिभिन्न प्रकार की भूमियों में की जा सकती है  भूमि जिसमे पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद उपलब्ध हो इसकी खेती के लिए अच्छी होती है हलकी रचना वाली भूमि में पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद डालकर इसकी खेती की जा सकती है |खेत की तयारी पहले खेत को पलेवा करें जब भूमि जुताई योग्य हो जाए तब उसकी जुताई 2 बार मिटटी पलटने वालेहल से करें इसके बाद 2 बार कल्टीवेटर चलाएँ और प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं |खाद गांठ गोभी की अच्छी उपज लेने के लिए  भूमि में कम से कम 35-40 क्विंटल गोबर की अच्छे तरीके से सड़ी हुई खाद  50 किलो ग्राम नीम की खली और 50 किलो अरंडी की खली आदि इन सब खादों को अच्छी तरह मिलाकर खेत में बुवाई से पहले इस मिश्रण को समान मात्रा में बिखेर लें  इसके बाद खेत में अच्छी तरह से जुताई कर खेत को तैयार करें इसके उपरांत बुवाई करें |रोपाई के 15 दिनों के बाद वर्मी वाश का प्रयोग किया जाता है रासायनिक खाद का प्रयोग करना हो  120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 60 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रयोग करना चाहिएप्रजातियाँअगेती किस्मे इस वर्ग के अंतर्गत अर्ली व्हाईट , व्हाईट वियना किस्मे आती है |पछेती किस्में इस वर्ग के अंतर्गत पर्पिल टाप , पर्पिल वियना , ग्रीज किस्मे आती है गांठ गोभी की प्रमुख दो उन्नत किस्मो का उल्लेख नीचे कियागया है |व्हाईट वियना यह एक अगेती और कम बढ़ने वाली किस्म है इसकी गांठे चिकनी हरी और ग्लोब के आकार की होती हैइसका गुदा कोमल और सफ़ेद रंग का होता है तनोंऔर पत्ती का रंग हल्का हरा होता है इसकी बुवाई अगस्त के दुसरे पखवाड़े से अक्टूम्बर तक की जाती है यह प्रति हे.150 क्विंटल उपज देती है |पर्पिल वियना यह एक पछेती किस्म है इसके पौधों में पत्ते अधिक होते है पत्तों और तनों का रंग बैंगनी होता है इसकी गांठों का छिलका भी बैंगनी और मोटा होता है इसका गुदा हरापन लिए सफ़ेद रंग का और मुलायम होता है गांठों में रेशा देरी से बनता है इसके बीजों की बुवाई अगस्त के अंतसे अक्टूम्बर तक की जाती है यह प्रति हे. 150क्विंटल तक उपज देती है |बीज बुवाई बोने का समय फुल गोभी की भांति इसकी पौध पहले पौधशाला में तैयार की जाती है लगभग 100 मीटर वर्ग क्षेत्र में उगाई गई पौध एक हे. भूमि की रोपाई के लिए पर्याप्त होती है इसका बीज पौधशाला में फसल के अनुसार मध्य अगस्त से नवम्बर तक बोया जाता है जबकि पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी बुवाई फ़रवरी में की जाती है मैदानी क्षेत्रों में इसकी खेती के लिए पौधशाला में बीज बोने का समय निम्न प्रकार से है अगेती फसल - मध्य अगस्त पछेती फसल - अक्टूम्बर से नवम्बर बीज की मात्रा गांठ गोभी के लिए प्रति हे. 1 - 1.5 किलो ग्राम बीज पर्याप्त होता है |कैसे करें बीज बुवाईपहले 200 से 300 ग्राम गौमूत्र  या नीम का तेल प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधित कर लेना चाहिए। इसके साथ ही साथ 160 से 175 मिली लीटर को 2.5 लीटर पानी में मिलकर प्रति पीस वर्ग मीटर के हिसाब नर्सरी में भूमि शोधन करना चाहिए। स्वस्थ पौधे तैयार करने केलिए भूमि तैयार होने पर 0.75 मीटर चौड़ी, 5 से 10 मीटर लम्बी, 15 से 20 सेंटीमीटर ऊँची क्यारिया बना लेनी चाहिए। दो क्यारियों के बीच में 50 से 60 सेंटीमीटर चौड़ी नाली पानी देने तथा अन्य क्रियाओ करने के लिए रखनी चाहिए। पौध डालने से पहले 5 किलो ग्राम गोबर की खाद प्रति क्यारी मिला देनी चाहिए तथा 10 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश व 5 किलो यूरिया प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से क्यारियों में मिला देना चाहिए। पौध 2.5 से 5 सेन्टीमीटर दूरी की कतारों में डालना चाहिए। क्यारियों में बीज बुवाई के बाद सड़ी गोबर की खाद से बीज को ढक देना चाहिए। इसके 1 से 2 दिन बाद नालियों में पानी लगा देना चाहिए या हजारे से पानी क्यारियों देना चाहिए।रोपाई जब पौधे 4-5 सप्ताह के हो जाएँ तब उसकी रोपाईकर देनी चाहिए इसकी पौध की रोपाई करते समय पंक्तियों और पौधों की आपसी दूरी 25 और 15 से.मी. रखें जबकि कभी -कभी 20 गुणा 20, 20 गुणा 25, 25 गुणा 35 से.मी. पर भी रोपाई करते है |सिचाई पौध रोपण के तुरंत बाद सिचाई कर दें उसके बादमें एक सप्ताह के अंतर से, देर वाली फसल में १०-१५ दिन के अंतर से सिचाई करें यह ध्यान रहे कि फुल निर्माण के समय भूमि में नमी कि कमी नहीं होनी चाहिए |कीट नियंत्रणकैबेज मैगेटयह जड़ों पर आक्रमण करता है जिसके कारण पौधे सुख जाते है |रोकथाम इसकी रोकथाम के लिए खेत में नीम कि खाद का प्रयोग करना चाहिए |चैंपायह कीट पत्तियों और पौधों के अन्य कोमल भागों का रस चूसता है जिसके कारण पत्तिय पिली पड़ जाती है |रोकथाम इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा को गोमूत्र के साथ मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर 750 मि. ली. मिश्रण को प्रति पम्प के हिसाब से फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |ग्रीन कैबेज वर्म ये दोनों पत्तियों को खाते है जिसके कारण पत्तियों कि आकृति बिगड़ जाती है |रोकथाम इसकी रोकथाम के लिए  गोमूत्र नीम का तेल मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर 500 मि. ली. मिश्रण को प्रति पम्प के हिसाब से फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें |डाईमंड बैकमोथयह मोथ भूरे या कत्थई रंग के होते है जो 1 से. मी. लम्बे होते है इसके अंडे 0.8 मि. मी. व्यासके होते है इनकी सुंडी 1 से. मी. लम्बी होती है जो पौधों कि पत्तियों के किनारों को खाती है |रोकथाम इसकी रोकथाम के लिए  गोमूत्र नीम का तेल मिलाकर अच्छी तरह मिश्रण तैयार कर 500 मि. ली. मिश्रण को प्रति पम्प के हिसाब से फसल में तर-बतर कर छिडकाव करें बिमारियों  रोकथाम के लिए बीज को बोने से पूर्व गोमूत्र , कैरोसिन या नीम का तेल से बीजको उपचारित करके बोएं |५४५ रोग नियंत्रण आद्र विगलन यह रोग फफूंदी के कारण होता है जिसके कारण पौधा मर जाता है |रोकथाम इसकी के लिए बीज को बोने पूर्व नीम का तेल, गोमूत्र या कैरोसिन से उपचारित करें |ब्लैक राट यह रोग एक्सेंथोमोनास कैम्पेस्ट्रिस द्वारा होता है रोगी पौधों की पत्तियों पर अंग्रेजी के (V) के आकार भूरे या पीले रंग के धब्बे स्पष्ट दिखाई पड़ते है डंठल या जड़ के भीतरी भाग काले पड़ जाते है पत्ते धीरे-धीरे पीले पड़कर सुख जाते है |रोकथाम इसकी के लिए बीज को बोने पूर्व नीम का तेल, गोमूत्र या कैरोसिन से उपचारित करें |क्लब राट और सोफ्ट राट  यह रोग फफूंदी के कारण होते है पौधा पतला, कोमल तथा उससे दुर्गन्ध आती है यह रोग स्नोबाल में अधिक लगता है |रोकथाम गोभी वर्गीय फसलों को ऐसे क्षेत्र में नहीं उगाना चाहिए जिनमे इन रोगों का प्रकोप रहा हो और सरसों वाले कुल के पौधे को इसके समीप न उगाएँ |कटाई जब फुला हुआ तना 5 - 8 से. मि. व्यास का हो जाए तब कटाई कर लेनी चाहिए देरी से कटाई करने से गांठों में रेखा बढ़ जाती है जिसके कारण उसकी अच्छी सब्जी नहीं बन पाती है |उपज इसकी प्रति हे.150 क्विंटल उपज मिल जाती है |अमर कान्तलेखक एक उन्नतशील किसान हैं।

चने की खेती

चने की खेती

बुवाई तकनीक

जमीन की तैयारी
1. चने के लिये अच्छे जलनिकास वाली मिट्टी उपयुक्त है. खेत की तैयारी के लिये 1 बार गहरी जुताई करे तथा बाद मे 1 या 2 बार हैरो चलाये. इसके बाद पाटा लगा कर खेत समतल करे.

किस्में/प्रजातियां
1 पूरे प्रदेश मे बुवाई के लिए चने की उन्नत किस्मे- देशी चने की -JG-315, JG-63, JG-16 या JG-218. काबुली चने की काक-2 या JGK-1 तथा गुलाबी चने की- जवाहर चना-5 या जवाहर गुलाबी चना 1 बोनी कर सकते है. 

2. देर से बोनी हेतु (15 दिस. तक) व दाल मिल के लिए उपयुक्त, जल्दी पकने वाली (95-110 दिन) किस्म जे. जी-14 का चुनाव कर सकते है.

3.सिंचित दशा मे 25 नवंबर तक बुवाई कर सकते है.देर से बुवाई हेतू उचित किस्म जे.जी.-14 किस्म का चयन करे. 

बीजोपचार
1. बीज को पहले रसायनिक फफूंद नाशक से उपचार के बाद जैविक कल्चर से छाया मे उपचारित कर तुरंत बोनी करे, जिससे जैविक बैक्टेरिया जीवित रह सके.

2. फसल को उकठा रोग से बचाव के लिए बीज को बुवाई के पूर्व फफूंदनाशक वीटावैक्स पावर, कैपटान, साफ, सिक्सर, थिरम, प्रोवेक्स मे से कोई एक 3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करे. इसके पश्चात एक किलो बीज मे राइजोबियम कल्चर तथा ट्राइकोडरमा विरडी की 5-5 ग्राम मिला कर उपचारित करे. 

3.बीज की अधिक मात्रा को उपचारित करने के लिए, सीड ड्रेसिंग ड्रम का उपयोग करे जिससे बीज एक समान उपचारित हो सके.

बुवाई तथा बुवाई विधि

 समान्य दशा मे चने की बूवाई का समय 15 अक्टूबर से 15 नवंबर तक होता है. कतार से कतार की दूरी 30 cm व पौधे से पौधे की दूरी 10 cm रखे तथा बीज की गहराई 5-8 cm रखे.

बीज दर
प्रति एकड़ बोनी हेतू बीज दर: मध्यम आकर के दाने की किस्म के लिए 30-32 किलो एवं बड़े दाने की किस्म के लिए 36-40 किलो  बीज का उपयोग करें

खरपतवार प्रबंधन
1. खरपतवार के रासायनिक नियंत्रण के लिए बुवाई के तुरंत बाद और फसल उगने से पहले खरपतवारनाशी पेंडीमेथालीन जैसे की पेन्डालीन, स्टोम्प का 7 मिली प्रति लीटर पानी की दर से स्प्रे करे।

2. खडी फसल मे खरपतवार नियन्त्रण के लिये (30-35दिन बाद) निराई गुड़ाई कर के खरपतवार निकाले।

शस्य क्रिया
1. पौधे की संख्या को अनुकूल करने के लिए छटाई करनी चाहिए जिससे सही विकास के लिए जगह मिलें। छटाई अंकुरण के एक सप्ताह के अन्दर कर लें।
2. तीस दिन के बाद पौधे का ऊपरी सिरा काट देना चाहिए जिससे ज्यादा शाखायें निकले और अधिक फूल आए।

फसल पोषण
देशी खाद व बायो फर्टिलाइजर
1. बुवाई पूर्व खेत तैयारी के समय 5-6 टन गोबर की खाद प्रति एकड़ की दर से मिट्टी मे मिलाये।

रासायनिक खाद
2. बुवाई के समय 40 किलो डी.ए.पी. तथा 14 किलो म्यूरेट आफ पोटाश अथवा 75 किलो 12-32-16 (NPK) प्रति एकड़ की दर से  मिट्टी मे मिलाए.

3. बुवाई के समय फसल मे 75 किलो फास्फो जिप्सम प्रति एकड का प्रयोग करे इसमे 17% सल्फर, 21% कैल्शियम, 0.7% फासफ़ोरस तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व होते है |

4 पहली निंदाई- गुडाई के समय 25 किलो फास्फो जिप्सम प्रति एकड की दर से दे. 
घुलनशील उर्वरको का स्प्रे
1. फसल की अच्छी वॄधि के लिए बुवाई के 15-20 दिन बाद तथा पीलापन दिखने पर पानी  मे घुलनशील उर्वरक 19-19-19 (NPK) 5 ग्राम / ली पानी मे छिड़के.

2. फूल व फली के अच्छे विकास व गुणवत्ता सुधार के लिए फूल निकलने से पहले पानी मे घुलनशील उर्वरक एन.पी.के. 19-19-19 @ 5 gm / ली पानी तथा फली-दाने वॄधि के समय एन.पी.के 0-52-34 को 5 ग्राम प्रति लीटर पानी मे मिलाकर छिड़के.
पोषक तत्वो की कमी व उपचार
1. चने मे ज़िंक की कमी के लक्षण बुवाई के 50-60 दिन बाद दिखते है,  इससे मुख्य तने  की पत्तियाँ पीली पड़कर झड़ने लगती है.

2. ज़िंक की कमी के लक्षण दिखने पर ज़िंक EDTA (चिलेटेड, Zn 12% EDTA) 100 g / एकड़ 200 ली पानी मे छिड़के.

सिंचाई
सिंचाई अनुतालिका

1. चने मे सामान्यतः एक या दो सिंचाई की ही जरूरत पड़ती है, अधिक सिंचाई से  पौधों की  वृधि  अधिक व उत्पादन कम हो सकता है. कीट व बीमारियों की संभावना बड जाती है. 

2. एक सिंचाई उपलब्ध होने पर फूल आने के पहले या बुवाई के लगभग 40-45 दिन बाद सिंचाई करें.  यह सिंचाई की मुख्य क्रांतिक अवस्था है.

3.  हल्की मिट्टी मे 2 सिंचाई उपलब्ध होने पर पहली सिचांई बुवाई के 40-45 दिन बाद तथा दूसरी 60-65 दिन बाद करे, यह सिंचाई की मुख्य क्रांतिक अवस्था है.
क्रांतिक अवस्था
1. फूल आने के पहले या बुवाई के लगभग 40-45 दिन बाद.
2. हल्की मिट्टी मे बुवाई के 40-45 दिन बाद तथा दूसरी 60-65 दिन बाद .

कीट नियंत्रण
माहू व चेपा

माहू व चेपा पौधे का रस चूस कर कमजोर करते है नियन्त्रण के लिये 5 ग्राम थायोमेथाक्जम 25 डबल्यूजी जैसे एकतारा, अनंत या 5 ग्राम इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्लू जी. एडमायर या एडफायर प्रति 15 लीटर पानी मे मिलाकर छिड़काव करे।

सेमी लूपर (हरी इल्ली), तंबाकू इल्ली, फली छेदक

1. इल्ली के नियंत्रण हेतु पक्षियों के बैठने के लिए समान अंतर पर फसल की लम्बाई से उँची 20-25 "T" आकर की खूंटिया प्रति एकड़ खेत में गाड़ दे.

2. फसल मे फली छेदक इल्ली का निरीक्षण करते रहे. प्रारंभिक अवस्था मे 50 मिली प्रोफेनोफोस 40% + सायपरमेथ्रिन 4% प्रति 15 लीटर पानी मे छिड़के अथवा इंडोक्साकार्ब 14.5% SC जैसे अवांट, फीगो, दक्ष, या धावा का 200 ml प्रति एकड़ 200 लीटर पानी मे एक समान रूप से छिड़काव करे. 

3. सभी प्रकार की  इल्लियों के प्रभावी नियंत्रण हेतु 7 ग्राम इमामेक्टिन बेन्जोएट 5%SG (प्रोक्लेम या ई.एम.-1) या 6 मिली क्लोरोन्ट्रेनिलीप्रोल 18.5%SC (कोराजन) या 5 मिली फ्लूबेन्डीयामाइड 39.9SC (फेम) या 10 ग्राम फ्लूबेन्डीयामाइड 20 WG प्रति 15 लीटर पानी मे छिड़के।

रोग नियंत्रण
पौधो का पीलापन व मुरझान
पीलापन तथा मुरझान की समस्या के नियंत्रण के लिये 45 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड या 30 ग्राम कार्बेन्डेजीम प्रति 15 लीटर पानी मे मिलाकर जमीन मे दे अथवा 100 ग्राम थायोफैनेट मिथाइल 70% WP (रोको या टरबाईन) तथा 1 किलो पानी मे घुलनशील 19-19-19 प्रति एकड़ 200 ली.  पानी मे छिड़के

अल्टरनेरिया झुलसा रोग
1 .फूल व फली बनते समय आल्टरनेरिया झुलसा रोग आ सकता है, इससे पत्तीयो पर छोटे, गोल-बैंगनी धब्बे बनते है, नमी अधिक होने पर पूरी पत्ती पर फैल जाता है. नियंत्रण-3 ग्राम मँकॉज़ेब 75%WP या 2 ग्राम मेटालैक्सिल 8% + मेन्कोज़ेब 64% (संचार या रिडोमिल)  प्रति लीटर पानी मे छिड़के.

अन्य समस्याएँ
सूत्रककृमि
1. सूत्रकृमि के प्रकोप से पौधा अविकसित रह जाता है. जडे छोटी रह जाती है जिससे उत्पादन प्रभावित होता है. 

2. नियंत्रण के लिये गर्मियो मे गहरी जुताई करे, प्रतिरोधी किस्म का चयन करें. गैर दलहनी फसलो को जैसे मक्का, धान या मूंगफली को फसल चक्र मे शामिल करे. रसायनिक नियंत्रण प्रकोप के अधार पर 10-15 किलो कार्बोफ्यूरान प्रति एकड़ का प्रयोग करे.

फसल कटाई से जुड़ी जानकारी
1. परिपक्व अवस्था: जब पौधे के अधिकतर भाग और फलिया लाल भूरी हो कर पक जाये तो कटाई करे.खलिहान की सफाई करे  और फसल को धूप म कुछ दिनो तक सुखाये तथा गहाई करे. भण्डारण के लिये दानो मे 12-14 प्रतिशत से अधिक नमी नही होनी चाहिये.

2. भंडारण: चने के भंडारण हेतू भंडार गृह की सफाई करे तथा दिवारो तथा फर्श की दरारो को मिट्टी या सिमेंट से भर दे. चूने की पुताई करे तथा 15 दिन के अंतराल पर 2-3 बार 10 ml मेलाथीयान 50%EC प्रति ली पानी का घोल 3 ली / 100 वर्ग मीटर की दर से दीवार तथा फर्श पर छिड़काव करें.

3. अनाज भंडारण के लिए बोरियो को मेलाथीयान 10 ml / ली पानी के घोल मे डुबाकर सुखाए, इसके बाद ही अनाज को  बोरियो मे भरें.

 चना: 

4. भंडारण कीट के नियंत्रण हेतु अल्यूमिनियम फॉसफाईड की गोली 3 g / टन की दर से भंडार ग्रह मे धुमित करे. बीज के  लिये फसल की गहाई अलग से करें तथा अच्छी तरह सुखाकर भंडारण के लिये मालाथियान 5%डस्ट 250 g / 100 kg अनाज मे मिलाए.

रविवार, 17 अक्टूबर 2021

फूलगोभी, पत्ता गोभी और अन्य क्रूस पर हीरा समर्थित पतंगों [DBM] लार्वा का प्रभावी प्रबंधन

फूलगोभी, पत्ता गोभी और अन्य क्रूस पर हीरा समर्थित पतंगों [DBM] लार्वा का प्रभावी प्रबंधन

डीबीएम की क्षति क्षमता: डायमंड बैक मोथ कीट कई प्रकार के कीटनाशकों के लिए प्रतिरोधी है और सभी क्रूसिफ़र्स के बीच बिक्री योग्य उपज में 50 से 80% की हानि का कारण बनता है।  लार्वा बहुत तेजी से (8.5 दिन) विकसित होते हैं और फूलगोभी पर प्यूपा बनाते हैं।  फूलगोभी पर पुतली की अवधि कम होती है और वयस्क उभरना अधिक होता है।
हीरा समर्थित कीट के चरण [DBM]

 अंडे:

 डीबीएम के अंडे सफेद पीले, बहुत छोटे और 0.5 मिमी लंबे होते हैं और प्रत्येक गंभीर मादा खेत की परिस्थितियों में 164 अंडे तक दे सकती है।

 अंडे आमतौर पर पत्तियों की ऊपरी सतह पर शिराओं के पास और कभी-कभी पत्तियों के पीछे की तरफ समूहों में रखे जाते हैं।

 अंडे की अवधि दो से छह दिनों के बीच होती है।

लार्वा:

 नवजात शिशु हल्के भूरे रंग के सिर वाले सफेद रंग के होंगे।

 पूरी तरह से विकसित कैटरपिलर हल्के हरे रंग के होंगे जिनकी लंबाई लगभग 10 मिमी होगी।

 लार्वा सक्रिय रूप से 14 और 21 दिनों के लिए प्यूपा से पहले खिलाते हैं।

 लार्वा चरण लगभग 4 इंस्टार है, पत्तियों पर बनने वाली खानों में पहले मोल्ट तक लार्वा रहते हैं।  अन्य इंस्टार लार्वा बाहरी रूप से फ़ीड करते हैं और चार लार्वा इंस्टार होते हैं।

 अंतिम इंस्टार नर लार्वा के पांचवें उदर खंड के पृष्ठ पर मौजूद सफेद विशिष्ट गोनाड मादा से अलग होते हैं।

प्यूपा:

 रेशमी कोकून में लार्वा पुतले, जो कैटरपिलर द्वारा ढीले काता जाता है, ऊपरी सतह पर मध्य शिरा के पास दिखाई देता है।

 प्यूपा हल्के भूरे रंग का होता है जो लगभग 6 मिमी लंबा होता है।

 गर्म और बरसात के मौसम में चार दिन और ठंडे मौसम में पांच दिन के लिए पुतली की अवधि।
पतंगे:

 पतंगे भूरे रंग के होते हैं जिनका पंख 14 मिमी तक फैला होता है।

 नर पतंगों के पंख बाहर की ओर मुड़े होते हैं और उनकी युक्तियों की ओर पीठ के बीच में हीरे के आकार के तीन पीले धब्बों की एक पंक्ति बनाते हैं।

 वयस्क दीर्घायु 6-13 दिनों से होती है, मादाएं पुरुषों की तुलना में कम जीवित रहती हैं।

 1:2 पुरुषों का महिलाओं से अनुपात।

 वयस्कों का संभोग उद्भव के उसी दिन शाम को शुरू होता है;  एक से दो घंटे तक रहता है और मादा केवल एक बार संभोग करती है।

 मादाएं संभोग के बाद अंडे देना शुरू कर देती हैं और उभरने के पहले दिन चोटी के साथ 10 दिनों तक जारी रहती हैं

डायमंड बैक मोथ का रासायनिक नियंत्रण



 लार्वा को नियंत्रित करने के लिए सुरक्षा उपायों को अतिरिक्त रूप से लेने की आवश्यकता है क्योंकि वानस्पतिक आवरण पत्तियों के अंदर जाने में सहायता करता है जिससे लार्वा बच जाते हैं।  प्रभावी नियंत्रण के लिए डीबीएम के सभी चरणों पर विचार करने की आवश्यकता है।  डायमंडबैक मोथ नियंत्रण के लिए अक्सर रासायनिक कीटनाशकों, या रसायनों और माइक्रोबियल के मिश्रण की सिफारिश की जाती है।  अनिवार्य रूप से गीला या फैलाने वाले एजेंटों को कीटनाशक स्प्रे में जोड़ा जाना चाहिए।



 प्लेथोरा 2 एमएल/एल + स्प्रेवेल 1 एमएल/ली

 या कोराजन 0.33 एमएल/एल + नीमर्क 1% - 1 एमएल/ली

 या ट्रेसर 0.375 एमएल/एल + नुवान 1 एमएल/एल + स्प्रेवेल 1 एमएल/ली

क्रूसिफर्स पर डीबीएम के प्रभावी नियंत्रण के लिए अन्य बातों पर विचार किया जाना चाहिए

 फूलगोभी/गोभी की प्रत्येक 25 पंक्तियों के बाद एक ट्रैप फसल के रूप में रोपण के समय सरसों की दो पंक्तियाँ उगाएँ।  यह 80-90% DBM आबादी और अन्य कीटों को फँसाता है।  सरसों की एक कतार पत्ता गोभी बोने से 15 दिन पहले और दूसरी पंक्ति पत्ता गोभी की बुआई के 25 दिन बाद बोई जाती है।  भूखंडों की पहली और आखिरी पंक्ति भी सरसों है।

 अंकुरित होते ही सरसों पर नुवान 2 एमएल/लीटर का छिड़काव किया जाता है।

 वयस्क डीबीएम के लिए 3 ट्रैप/एकड़ की दर से लाइट ट्रैप की स्थापना।

 बैसिलस थुरिंजिनेसिस 1 ग्राम/लीटर का छिड़काव रोपण के 56 दिनों के बाद (ETL 2 लार्वा/पौधा) करें और इसे 10-15 दिनों में दोहराएं।



 के संजीव रेड्डी,

 वरिष्ठ कृषि विज्ञानी, बिगहाट।

मंगलवार, 12 अक्टूबर 2021

शिमला मिर्च की उन्नत खेती

शिमला मिर्च की उन्नत खेती

सब्जियों मे शिमला मिर्च की खेती का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसको ग्रीन पेपर, स्वीट पेपर, बेल पेपर आदि विभिन्न नामो से जाना जाता है। आकार एवं तीखापन मे यह मिर्च से भिन्न होता है। इसके फल गुदादार, मांसल, मोटा, घण्टी नुमा कही से उभरा तो कही से नीचे दबा हुआ होता है। शिमला मिर्च की लगभग सभी किस्मो मे तीखापन अत्यंत कम या नही के बराबर पाया जाता है। इसमे मुख्य रूप से विटामिन ए तथा सी की मात्रा अधिक होती है। इसलिये इसको सब्जी के रूप मे उपयोग किया जाता है। यदि किसान इसकी खेती उन्नत व वैज्ञानिक तरीके सेकरे तो अधिक उत्पादन एवं आय प्राप्त कर सकता है। इस लेख के माध्यम से इन्ही सब बिंदुओ पर प्रकाश डाला गया है।जलवायुः-यह नर्म आर्द्र जलवायु की फसल है। छत्तीसगढ़मे सामान्यतः शीत ऋतु मे तापमान 100 सेल्सियस से अक्सर नीचे नही जाता एवं ठंड का प्रभाव बहुत कम दिनो के लिये रहने के कारण इसकी वर्ष भर फसले ली जा सकती है। इसकी अच्छीवृद्धि एवं विकास के लिये 21-250 सेल्सियस तापक्रम उपयुक्त रहता है। पाला इसके लिये हानिकारक होता है। ठंडे मौसम मे इसके फूल कम लगते है, फल छोटे, कड़े एवं टेढ़े मेढ़े आकार के हो जाते है तथा अधिक तापक्रम (330 सेंल्सि. से अधिक) होने से भी इसके फूल एवं फलझड़ने लगते है।भूमिः-इसकी खेती के लिये अच्छे जल निकास वाली चिकनी दोमट मृदा जिसका पी.एच. मान 6-6.5 हो सर्वोत्तम माना जाता है। वहीं बलुई दोमट मृदा मे भी अधिक खाद डालकर एवं सही समय व उचित सिंचाई प्रबंधन द्वारा खेती किया जा सकता है। जमीन के सतह से नीचे क्यारियों की अपेक्षा इसकी खेती के लिये जमीन की सतह से ऊपर उठी एवं समतल क्यारियां ज्यादा उपयुक्त मानी जाती है।उन्नत किस्मेः-शिमला मिर्च की उन्नत किस्मों मे अर्का गौरव,अर्का मोहिनी, किंग आॅफ नार्थ, कैलिफोर्निया वांडर, अर्का बसंत, ऐश्वर्या, अलंकार, अनुपम, हरी रानी, पूसा दिप्ती, भारत, ग्रीन गोल्ड, हीरा, इंदिरा प्रमुख है।खाद एवं उर्वरकः-खेत की तैयारी के समय 25-30 टन गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद डालना चाहिये। आधार खाद के रूप मे रोपाई के समय 60 कि.ग्रा. नत्रजन, 60-80 कि.ग्रा. स्फुर एवं 40-60 कि.ग्रा. पोटाश डालना चाहिये। एवं 60 कि.ग्रा. नत्रजन को दो भागो मे बांटकर खडी फसल मे रोपाई के 30 एवं 55 दिन बाद टाप ड्रेसिंग के रूप मे छिड़कना चाहिये।नर्सरी तैयार करनाः-3 x 1 मी. आकार के जमीन के सतह से ऊपर उठी क्यारियां बनाना चाहिये। इस तरह से 5-6 क्यारियां 1 हेक्टेयर क्षेत्र के लिये पर्याप्त रहती है। प्रत्येक क्यारी मे 2-3 टोकरी गोबर की अच्छी सड़ी खाद डालना चाहिये।मृदा को उपचारित करने के लिये 1 ग्रा. बाविस्टिन को प्रति लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिये। लगभग 1 कि.ग्रा. बीज/हेक्टेयर क्षेत्र मे लगाने के लिये पर्याप्त रहता है। बीजो को बोने के पूर्व थाइरम, केप्टान या बाविस्टिन के 2.5 ग्रा./किलो बीज के हिसाब से उपचारित करके कतारो मे प्रत्येक 10 से.मी. की दूरी मे लकडी या कुदाली की सहायता से 1 से.मी. गहरी नाली बनाकर 2-3 से.मी. की दूरी मे बुवाई करना चाहिये। बीजो को बोने के बाद गोबर की खाद व मिट्टी के मिश्रण से ढंककर हजारे की सहायता से हल्की सिंचाई करना चाहिये। यदि संभव हो तो क्यारियों को पुआल या सूखी घांस से कुछ दिनो के लिये ढंक देना चाहिये।बीजएवंपौधरोपणकासमयः-बीज बोने का समय            पौध रोपाई का समयजून-जुलाई                       जुलाई-अगस्तअगस्त-सितंबर                 सितंबर-अक्टूबरनवंबर-दिसंबर                दिसंबर-जनवरीरोपण एवं दूरीः-सामान्यतः 10-15 से.मी. लंबा, 4-5 पत्तियों वाला पौध जो कि लगभग 45-50 दिनो मे तैयार हो जाता है रोपण के लिये प्रयोग करें। पौध रोपण के एक दिन पूर्व क्यारियों मे सिंचाई कर देना चाहिये ताकि पौध आसानी से निकाला जा सके। पौध को शाम के समय मुख्य खेत मे 60 x 45 से.मी. की दूरी पर लगाना चाहिये। रोपाई के पूर्व पौध की जड़ को बाविस्टिन 1 ग्रा./ली. पानी के घोल मे आधा घंटा डुबाकर रखना चाहिये। रोपाई के बाद खेत की हल्की सिंचाई करें।सिंचाईः-शिमला मिर्च की फसल को कम एवं ज्यादा पानी दोनो से नुकसान होता है। यदि खेत मे ज्यादा पानी का भराव हो गया हो तो तुरंत जल निकास की व्यवस्था करनी चाहिये। मृदा मे नमी कम होने पर सिंचाई करना चाहिये। नमी की पहचान करने के लिये खेत की मिट्टी को हाथ मे लेकर लड्डू बनाकर देखना चाहिये यदि मिट्टी का लड्डू आसानी से बने तो मृदा मे नमी है यदि ना बने तोसिंचाई कर देना चाहिये।  सामान्यतः गर्मियो मे 1 सप्ताह एवं शीत ऋतु मे 10-15 दिनो के अंतराल पर सिंचाई करना चाहिये।निराई - गुड़ाईः-रोपण के बाद शुरू के 30-45 दिन तक खेत को खरपतवार मुक्त रखना अच्छे फसल उत्पादन की दृष्टि से आवश्यक है। कम से कम दो निराई-गुड़ाई लाभप्रद रहती है। पहली निराई-गुड़ाई रोपण के 25 एवं दूसरी 45 दिन के बाद करना चाहिये। पौध रोपण के 30 दिन बाद पौधो मे मिट्टी चढ़ाना चाहिये ताकि पौधे मजबूत हो जाये एवं गिरे नही। यदि खरपतवार नियंत्रण केलिये रसायनो का प्रयोग करना हो तो खेत मे नमीकी अवस्था मे पेन्डीमेथेलिन 4 लीटर या एलाक्लोर (लासो) 2 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें।फूल व फल गिरने का रोकथामः-शिमला मिर्च मे फूल लगना प्रारंभ होते ही प्लानोफिक्स नामक दवा को 2 मि.ली./ली. पानी मे घोलकर पहला छिड़काव करना चाहिये एवं इसके25 दिन बाद दूसरा छिड़काव करे। इससे फूल का झड़ना कम हो जाता है फल अच्छे आते है एवं उत्पादन मे वृ़िद्ध होती है।पौध सरंक्षणः-शिमला मिर्च मे लगने वाले प्रमुख कीट एवं रोग का वर्णन व रोकथाम निम्न प्रकार है-प्रमुख कीटः-इसमे प्रमुख रूप से माहो, थ्रिप्स, सफेद मक्खी व मकडी का प्रकोप ज्यादा होता है।रोकथामः- इन कीटो से रोकथाम के लिये डायमेथोएट (रोगार) या मिथाइल डेमेटान या मेलाथियान का 1 मि.ली./ली. पानी के हिसाब से घोल बनाकर 15 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करे। फलों के तुड़ाई पश्चात ही रसायनो का छिड़काव करना चाहिये।प्रमुख रोगः-इसमे प्रमुख रूप से आद्रगलन, भभूतिया रोग, उकटा, पर्ण कुंचन एवं श्यामवर्ण व फल सड़न का प्रकोप होता है।आर्द्रगलन रोग:- इस रोग का प्रकोप नर्सरी अवस्था में होता है। इसमे जमीन की सतह वाले तने का भाग काला पडकर गल जाता है। और छोटे पोधे गिरकर मरने लगते हैं।रोकथाम:- बुआई से पूर्व बीजों को थाइरम, केप्टान या बाविस्टिन 2.5-3 ग्राम प्रति किलों बीज की दर से उपचारित कर बोयें। नर्सरी, आसपास की भूमि से 6 से 8 इंच उठी हुई भूमि में बनावें। मृदा उपचार के लिये नर्सरीमें बुवाई से पूर्व थाइरम या कैप्टान या बाविस्टिन का 0.2 प्रतिशत सांद्रता का घोल मृदा मे सींचा जाता है जिसे ड्रेंचिंग कहते है। रोग के लक्षण प्रकट होने पर बोडों मिश्रण 5ः5ः50 या काॅपर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कार छिडकाव करें।भभूतिया रोगः- यह रोग ज्यादातर गर्मियो मे आता है। इस रोग मे पत्तियों पर सफेद चूर्ण युक्त धब्बे बनने लगते हैै। रोग की तीव्रता होने पर पत्तियाॅं पीली पड़कर सूखने लगती पौधा बौना हो जाता है।रोकथामः- रोग से रोकथाम के लिये सल्फेक्स याकैलेक्सिन का 0.2 प्रतिशत सांद्रता का घोल 15 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करे। जीवाणु उकठा:- इस रोग मे प्रभावित खेत की फसलहरा का हरा मुरझाकर सूख जाता है। यह रोग पौधें में किसी भी समय प्रकोप कर सकता है।रोकथाम:- गी्रष्मकालीन गहरी जुताई करके खेतों को कुछ समय के लिये खाली छोड देना चाहिये। फसल चक्र अपनाना चाहिए। रोग शहनशील जातियां जैसे अर्का गौरव का चुनाव करना चाहिये। प्रभावित खडी फसल में रोग का प्रकोपकम करने के लिये गुडाई बंद कर देना चाहिए क्योंकि गुडाई करने से जडों में घाव बनतें है व रोग का प्रकोप बढता है। रोपाई पूर्व खेतों में ब्लीचिंग पाउडर 15 कि.गा्र. प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में मिलायें।पर्ण कुंचन(लीफ कर्ल ) व मोजेकः- ये विषाणु जनित रोग है। पर्ण कुंचन रोग के कारण पौधों के पत्ते सिकुडकर मुड़ जाते है तथा छोटे व भूरे रंग युक्त हो जाते हैं। ग्रसित पत्तियां आकार मे छोटी, नीचे की ओर मुडी हुई मोटी व खुरदुरी हो जाती है। मोजेक रोग के कारण पत्तियों पर गहरा व हल्का पीलापन लिए हुए हरे रंग के धब्बे बन जाते है। उक्त रोगोंको फैलाने में कीट अहम भूमिका निभाते हैं! प्रभावित पौधे पूर्ण रूप से उत्पादन देने मेअसमर्थ सिद्ध होते है रोग द्वारा उपज की मात्रा व गुणवत्ता दोनो प्रभावित होती है।रोकथामः- बुवाई से पूर्व कार्बोफ्यूरान 3 जी, 8 से 10 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से भूमि में मिलावें। पौध रोपण के 15 से 20 दिन बाद डाइमिथोएट 30 ई.सी. या इमिडाक्लोप्रिड एक मिली लीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें। यह छिड़काव 15 से 20 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार दोहरावें। फूल आने के बाद उपरोक्त कीटनाषी दवाओं के स्थान पर मैलाथियान 50 ई.सी. एक मिली लीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें!श्याम वर्ण व फल सड़नः- रोग के शुरूवाती लक्षणो मे पत्तियो पर छोटे-छोटे काले धब्बे बनते है। रोग के तीव्रता होने पर शाखाएं ऊपर से नीचे की तरफ सूखने लगती है। फलों के पकने की अवस्था मे छोटे-छोट कालेे गोल धब्बे बनने लगते है बाद मे इनका रंग धूसर हो जाता है जिसके किनारो पर गहरे रंग की रेखा होती है। प्रभावित फल समय से पहले झड़ने लगते है। अधिक आद्रता इस रोग को फैलाने मे सहायक होती है।रोकथामः- फसल चक्र अपनाना चाहिये। स्वस्थ एवं उपचारित बीजों का ही प्रयोग करे। मेन्कोजेब, डायफोल्टान, या ब्लाइटाॅक्स का 0.2 प्रतिशत सांद्रता का घोल बनाकर 15 दिन के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करे।  फलो की तुड़ाई एवं उपजः-शिमला मिर्च की तुड़ाई पौध रोपण के 65-70 दिन बाद प्रारंभ हो जाता है जो कि 90-120 दिन तक चलता है। नियमित रूप से तुड़ाई का कार्य करना चाहिये। उन्नतशील किस्मो मे 100-120 क्ंिवटल एवं संकर किस्मो मे 200-250 क्ंवटल/हेक्टेयर उपज मिलती है।

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2021

आलू की खेती

आलू की खेती
इसे सब्जियों का राजा कहा जाता है  भारत में शायद ही कोई ऐसा रसोई घर होगा जहाँ पर आलू ना दिखे । इसकी मसालेदार तरकारी, पकौड़ी,  चॉट, पापड चिप्स जैसे स्वादिष्ट पकवानो के अलावा अंकल चिप्स, भुजिया और कुरकुरे भी हर जवां के मन को भा रहे हैं। प्रोटीन, स्टार्च, विटामिन सी और के  अलावा आलू में अमीनो अम्ल जैसे ट्रिप्टोफेन, ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन आदि काफी मात्रा में पाये जाते है जो शरीर के विकास के लिए आवश्यक है। आलू भारत की सबसे महत्वफपूर्ण फसल है। तमिलनाडु एवं केरल को छोडकर आलू सारे देश में उगाया जाता है। किसान आज से लगभग 7000 साल पहले से आलू उगा रहे हैं। 

जलवायु 

आलू के लिए छोटे दिनों कि अवस्था आवश्यक होती है भारत के बिभिन्न भागो में उचित जलवायु कि उपलब्धता के अनुसार किसी न किसी भाग में सारे साल आलू कि खेती कि जाती बढवार के समय आलू को मध्यिम शीत की आवश्यवकता होती है। मैदानी क्षेत्रो  में बहुधा शीतकाल (रबी) में आलू की खेती प्रचलित है । आलू की वृद्धि एवं विकास के लिए इष्टतम तापक्रम 15- 25 डि से  के मध्य होना चाहिए। इसके अंकुरण के लिए लगभग 25 डि से. संवर्धन के लिए 20 डि से. और कन्द विकास के लिए 17 से 19 डि से. तापक्रम की आवश्यकता होती है, उच्चतर तापक्रम (30 डि से.) होने पर आलू  विकास की प्रक्रिया प्रभावित होती है अक्टूबर से मार्च तक,  लम्बी रात्रि तथा चमकीले छोटे दिन आलू बनने और बढ़ने के लिए अच्छे होते है। बदली भरे दिन, वर्षा तथा उच्च आर्द्रता का मौसम आलू की फसल में फफूँद व बैक्टीरिया जनित रोगों को फैलाने के लिए अनुकूल दशायें हैं।

 

भूमि 

आलू को क्षारीय मृदा के अलावा सभी प्रकार के मृदाओ में उगाया जा सकता है परन्तु जीवांश युक्त रेतीली दोमट या सिल्टी दोमट भूमि इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम है भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध अति आवश्यक है मिटटी का P H मान 5.2 से 6.5 अत्यंत उपयुक्त पाया गया है - जैसे जैसे यह P H मान ऊपर बढ़ता जाता है दशाएं अच्छी उपज के लिए प्रतिकूल हो जाती है .
आलू के कंद मिटटी के अन्दर तैयार होते है, अत मिटटी का भली भांति भुर भूरा होना नितांत आवश्यक है पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करे दूसरी और तीसरी जुताई देसी हल या हीरो से करनी चाहिए यदि खेती में धेले हो तो पाटा चलाकर मिटटी को भुरभुरा बना लेना चाहिए बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है यदि खेत में नमी कि कमी हो तो खेत में पलेवा करके जुताई करनी चाहिए .

 

प्रजातियाँ

बिदेशी किस्मे

कुछ बिदेशी किस्मो का भारतीय परिस्थियों के लिए अनुकूल किया गया है जिनमे कुछ के नाम निचे दिए गए है 
अपटुडेट , क्रेग्स डिफैंस , प्रेसिडेंट आदि .

केन्द्रीय आलू अनुसन्धान शिमला द्वारा बिकसित किस्मे 
कुफरी चन्द्र मुखी 
 80-90 दिन में तैयार  200-250 कुंतल उपज
कुफरी अलंकार 
70 दिन में तैयार हो जाती है यह किस्म पछेती अंगमारी रोग के लिए कुछ हद तक प्रतिरोधी है यह प्रति हेक्टेयर 200-250 क्विंटल उपज देती है .
कुफरी बहार 3792 E
90-110 दिन में लम्बे दिन वाली दशा में 100-135 दिन में तैयार 
कुफरी नवताल G 2524 
 75-85 दिन में तैयार  200-250  कुंतल/हे उपज 
कुफरी ज्योति 
80 -120 दिन तैयार 150-250 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी शीत मान 
100-130 दिन में तैयार  250 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी बादशाह
100-120 दिन में तैयार 250-275 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी सिंदूरी 
120 से 140 दिन में तैयार 300-400 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी देवा
120-125 दिन में तैयार 300-400 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी लालिमा
यह शीघ्र तैयार होने वाली किस्म है जो 90-100 दिन में तैयार हो जाती है इसके कंद गोल आँखे कुछ गहरी और छिलका गुलाबी रंग का होता है यह अगेती झुलसा के लिए मध्यम अवरोधी है .
कुफरी लवकर
 100-120 दिन में तैयार 300-400 क्विंटल/ हे उपज 
कुफरी स्वर्ण
110 में दिन में तैयार  उपज 300 क्विंटल/ हे उपज 
संकर किस्मे 
कुफरी जवाहर JH 222 
 90-110 दिन में तैयार  खेतो में अगेता झुलसा और फोम रोग कि यह प्रति रोधी किस्म है यह 250-300 क्विंटल उपज
E 4,486 
135 दिन में तैयार 250-300 क्विंटल उपज   हरियांणा,उत्तर प्रदेश,बिहार पश्चिम बंगाल गुजरात और मध्य प्रदेश में उगाने के लिए उपयोगी
JF 5106 
उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रो में उगाने के लिए अउपयोगी .75 दिनों की फ़सल   उपज 23-28 टन / 0 हे मिल जाती है 
कुफरी संतुलज J 5857 I
संकर किस्म सिन्धु गंगा मैदानों और पठारी क्षेत्रो में उगाने के लिए   75 दिनों की फ़सल   उपज 23-28 टन / हे उपज 
कुफरी अशोक P 376 J
75 दिनों मेकी फ़सल   उपज 23-28 टन / 0 हे मिल जाती है 
JEX -166 C
 अवधि 90 दिन में तैयार होने वाली किस्म है 30 टन /हे उपज
आलू की नवीनतम किस्मे    
कुफरी चिप्सोना -1, कुफरी चिप्सोना -2, कुफरी गिरिराज, कुफरी आनंद

 

उपयुक्त  माप के बीज का चुनाव 

आलू के बीज का आकार और उसकी उपज से लाभ का आपस मे गहरा सम्बंध है। बडे माप के बीजों से उपज तो अधिक होती है परन्तु बीज की कीमत अधिक होने से पर्याप्त लाभ नही होता। बहूत छोटे माप का बीज सस्ताक होगा परन्तु  रोगाणुयुक्ता आलू पैदा होने का खतरा बढ जाता है। प्राय: देखा गया है कि रोगयुक्तह फसल में छोटै माप के बीजो का अनुपात अधिक होता है। इसलिए अच्छेक लाभ के लिए 3 से.मी. से 3.5 से.मी.आकार या 30-40 ग्राम भार के आलूओंको ही बीज के रूप में बोना चाहिए। 

बुआई का समय एवं बीज की मात्रा

उत्त र भारत में, जहॉ पाला पडना आम बात है, आलू को बढने के लिए कम समय मिलता है। अगेती बुआई से बढवार के लिए लम्बा समय तो मिल जाता है परन्तुप उपज अधिक नही होती क्योंकि ऐसी अगेती फसल में बढवार व कन्दब का बनना प्रतिकूल तापमान मे होता है साथ ही बीजों के अपूर्ण अंकुरण व सडन का खतरा भी बना रहता है। अत: उत्तर भारत मे आलू की बुआई इस प्रकार करें कि आलू दिसम्बर के अंत तक पूरा बन जाऐ। उत्तर-पश्चिमी भागों मे आलू की बुआई का उपयुक्तब समय अक्तू्बर माह का पहला पखवाडा है। पूर्वी भारत में आलू अक्तूबर के मध्य‍ से जनवरी तक बोया जाती है।  इसके लिए 25 से 30 क्विंटल बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है।

बुआई की विधि

पौधों में कम फासला रखने से रोशनी,पानी और पोषक तत्वोंह के लिए उनमें होड बढ जाती है फलस्वपरूप छोटे माप के आलू पैदा होते हैं। अधिक फासला रखने से प्रति हैक्टे,यर में पौधो की संख्या  कम हो जाती है जिससे आलू का मान तो बढ जाता है परन्तुल उपज घट जाती है। इसलिए कतारों और पौधो की दूरी में ऐसा संतुलन बनाना होता है कि न उपज कम हो और न आलू की माप कम हो। उचित माप के बीज के लिए पंक्तियों मे 50 से.मी. का अन्तलर व पौधों में 20 से 25 से.मी. की दूरी रखनी चाहिए।

बीज उपचार

ओगरा ,दीमक ,फंफूद और जमीन ,जनित बीमारी से बचाव के लिए बीज उपचारित करने का तरीका    
5 लीटर देसी गाय का मट्ठा लेकर 15 ग्राम बराबर हींग लेकर अच्छी तरह से बारीक़ पीसकर घोल बनाकर उसमे बीज को उपचारित करे घंटे सुखाने पर बुवाई करे 
5 देसी गाय के गोमूत्र में बीज को उपचारित 2-3 घंटे सूखने के बाद बुवाई करे 

 

खाद एवं उर्वक

गोबर की सड़ी खाद 50-60 टन20 किलो ग्राम नीम की खली 20 किलो ग्राम अरंडी की खली इन सब खादों को अच्छी तरह से मिलाकर प्रति एकड़ भूमि में समान मात्रा में छिड़काव कर जुताई कर खेत तैयार कर बुवाई करे 
और जब फसल 25 - 30 दिन की हो जाए तब उसमे 10ली. गौमूत्र में नीम का काड़ा मिलाकर अच्छी प्रकार से मिश्रण तैयार कर फसल में तर-बतर कर छिड़काव करें और हर 15-20 दिन के अंतर से दूसरा व तीसरा छिड़काव करें |
रासायनिक खाद की दशा में 
खाद की मात्रा प्रति हेक्टेअर मिट्टी परीक्षण के आधार पर दे
गोबर की सड़ी खाद : 50-60 टन
नाइट्रोजन : 100-120 कि०ग्रा० प्रति हेक्टेअर
फॉसफोरस : 45-50 कि०ग्रा० प्रति हेक्टेअर
गोबर तथा फ़ॉस्फ़रस खादों की मात्रा को खेत की तैयारी में रोपाई से पहले मिट्टी में अच्छी प्रकार मिला दें. नाइट्रोजन की खाद को 2 या 3 भागों में बांटकर रोपाई के क्रमशः 25 ,45 तथा 60 दिन बाद प्रयोग कर सकते हैं. नाइट्रोजन की खाद दूसरी बार लगाने के बाद, पौधों पर परत की मिट्टी चढाना लाभदायक रहता है 

 

 

सिंचाई

आलू कि सफल खेती के लिए सिंचाई का महत्व पूर्ण योगदान है मैदानी क्षेत्रो में पानी कि उपलब्धता होने पर ही खेती कि जा सकती है परन्तु पहाड़ी क्षेत्रो में आलू कि खेती वर्षा पर निर्भर करती है इसकी खेती में पानी कि कमी किसी भी अवधी में होने से आलू का बढ़वार , बिकास और कंद के निर्माण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ऐसी जगह जहाँ पानी ठहरता हो वंहा इससे हानी होती है आलू कि पहली सिंचाई अंकुरण के उपरांत करनी चाहिए इसके बाद कि 10-12 दिन के अंतराल पर करे प्रत्येक बार हलकी सिंचाई करनी चाहिए इस बात का ध्यान सिंचाइयाँ रहे खूंड तिन चौथाई से अधिक न डूबने पाए कंद निर्माण के समय पानी कि कमी किसी भी हालत में नहीं होनी चाहिए इसकी खेती 500 लगभग मी.ली. पानी कि आवश्यकता होती है आलू कि खुदाई करने के 10 दिन पूर्ब सिंचाई बंद कर देनी चाहिए इससे आलू के कंदों का छिलका कठोर हो जाता है जिससे खुदाई करते समय छिलका नहीं छिलता और कंदों के भण्डारण क्षमता में बृद्धि हो जाती है .

खरपतवार 

आलू कि खेती में खर पतवारो कि समस्या मिटटी चढ़ाने से पूर्ब अधिक होती है यह समस्या निराई गुड़ाई और मिटटी चढ़ाने से काफी कम हो जाती है फिर भी किन्ही किन्ही स्थानों आर खरपतवार कि बढ़वार इतनी अधिक हो जाती है कि वे आलू के पौधे निकलने से पहले ही उन्हें ढक लेते है जिसके कारण आलू के फसल को काफी क्षति होती है उन्हें निकाई गुड़ाई कर निकाल देना चाहिए .

 

कीट

चैपा
यह गहरे हरे या काले रंग के होते है प्रौढ़ अवस्था में यह दो प्रकार के होते है पंखदार और पंख हिन् इसके अवयस्क और प्रौढ़ दोनों ही पत्तियों और शाखाओं का रस चूसते है अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां निचे की ओर मुड जाती है और पीली पड़कर सुख जाती है इसकी पंखदार जाती विषाणु फ़ैलाने में सहायता करती है .
उपचार
देसी गाय का 5 लीटर मट्ठा लेकर उसमे 5 किलो नीम कि पत्ती या 2 किलोग्राम नीम कि खली या 2 किलोग्राम  नीम की पत्त्ती एक बड़े मटके में 40-50 दिन भरकर तक सडा कर - सड़ने के बाद उस मिश्रण में से 5 लीटर मात्रा को 200 लीटर पानी में डालकर अच्छी तरह मिलाकर तर बतर कर प्रति एकड़ छिड़काव करे
कुतरा
इस किट कि सुंडिया आलू के पौधों और शाखाओं और उगते हुए कंदों को काट देती है बाद कि अवस्था में इसकी सुंडी आलुओं में छेद कर देती है जिससे कंदों का बाजार भाव कम हो जाता है यह किट रात में फसल को क्षति पहुंचाती है .
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2किलो नीम की पत्ती 2किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके लीटर 1 मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे .
व्हाईटगर्ब 
इसे कुरमुला कि संज्ञा भी दी जाती है जो सफ़ेद या सलेटी रंग कि होती है इसका शरीर मुडा हुआ और सर भूरे रंग का होता है यह जमीन के अन्दर रहकर पौधों कि जड़ो को क्षति पहुंचता है इसके अतिरिक्त आलू में छिद्र कर देती है जिसके कारण आलू का बाजार भाव कम हो जाता है .
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ कि पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके लीटर 1 मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे .
एपिलेकना
यह छोटा , पीलापन लिए हुए भूरे रंग का किट है इसक पीठ का भाग उठा हुआ होता है जिस पर काफी बिंदिया पाई जाती है अवयस्क और प्रौढ़ किट दोनों ही क्षति पहुंचे है पौधों कि पत्तियों को किट इस
के बच्चे धीरे धीरे खुरच कर खा जाते है और पत्तियां सुख जाती है .
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2किलो नीम की पत्ती 2किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके लीटर 1 मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे 

 

 

रोग एवं उपचार

अगेतीअंगमारी
यह रोग आल्तेरनेरिया सोलेनाई नामक फफूंदी के कारण लगता है उत्तरी भारत में इस रोग का आक्रमण शरद ऋतू के फसल पर नवम्बर में और बसंत कालीन फसल में फरवरी में होता है यह रोग कंद निर्माण से पहले ही लग सकता है निचे वाली पत्तियों पर सबसे पहले प्रकोप होता है जंहा से रोग बाद में ऊपर कि ओर बढ़ता है पत्तियों पर छोट छोटे गोल अंडाकार या कोणीय धब्बे बन जाते है जो भूरे रंग के होते है ये धब्बे सूखे एवं चटकने वाले होते है बाद में धब्बे के आकार में बृद्धि हो जाती है जो पूरी पत्ती को ढक लेती है रोगी पौधा मर जाता है .
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2किलो नीम की पत्ती 2किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके लीटर 1 मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे 
पछेती अंगमारी
यह रोग फाइटो पथोरा इन्फैस्तैन्स नामक फफूंदी के द्वारा होता है इस रोग में पत्तियों कि शिराओं , तानो डंठलो पर छोटे भूरे रंग के धब्बे उभर आते है जो बाद में काले पड़ जाते है और पौधे के भूरे भाग गल सड़ जाते है रोकथाम में देरी होने पर आलू के कंद भूरे बैगनी रंग में परवर्तित होने के उपरांत गलने शुरू हो जाते है .
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2किलो नीम की पत्ती 2किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके लीटर 1 मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे 
500 ग्राम लहसुन और 500 ग्राम तीखी चटपटी हरी मिर्चलेकर बारीक़ पीसकर 200 लीटर पानी में घोलकर थोडा सा शैम्पू झाग के लिए मिलाकर तर बतर कर अच्छी तरह छिड़काव प्रति एकड़ करे .
काली रुसी ब्लैक स्कर्फ 
यह रोग राइजोक्टोनिया सोलेनाई नामक फफूंदी के कारण होता है इस रोग का आक्रमण मैदानी या पर्वतीय क्षेत्र में होता है रोगी कंदों प़र चाकलेटी रंग के उठे हुए धब्बो का निर्माण हो जाता है जो धोने से साफ नहीं होते है है इस फफूंदी का प्रकोप बुवाई के बाद आरम्भ होता है जिससे कंद मर जाते है और पौधे दूर दूर दिखाई पड़ते है .
उपचार
10 लीटर देसी गाय का गोमूत्र में 2 किलो अकौआ की पत्ती 2किलो नीम की पत्ती 2किलो बेसरम की पत्ती मिलाकर 10-15 दिन तक सड़ाकर इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालकर फिर इसके लीटर 1 मिश्रण को 200 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर पम्प द्वारा प्रति एकड़ छिड़काव करे     
भूमि जनित बीमारी जड़ सडन रोग , दीमक आदि के लिए अरंडी कि खली और नीम खाद अपने खेतो में प्रयोग करे 

 

 

 

खुदाई 

खेत में खुदाई के समय कटे और सड़े आलू के कंदों को अलग कर देना चाहिए , खुदाई छंटाई और बोरियों में भरते समय और बाजार भेजने के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि आलू काछिलका न उतरे साथ ही उन्हें किसी प्रकार का क्षति नहीं होनी चाहिए तो बाजार भाव अच्छा रहता है .

 

उपज

आलू कि उपज उसकी किस्म भूमि कि उर्बरा शक्ति और फसल कि देख भाल पर निर्भर करती है मैदानी क्षेत्रो में एक हेक्टेयर अगेती,मध्य मौसमी किस्मो कि 200-250 क्विंटल और पछेती किस्मो कि 300-400 कुंतल तक उपज मिलती है पर्वतीय घाटियों में 150 - 200 कुंतल और ऊँचे पहाड़ो पर 200 क्विंटल तक उपज मिल जाती है .

 

 

भण्डारण

आलू शीघ्र ख़राब होने वाली वस्तु है : अत इसके लिए अच्छे भण्डारण कि सुबिधा का होना नितांत आवश्यक है पर्वतीय क्षेत्रो में कम तापमान होने के कारण वंहा भण्डारण कि कोई बिशेष समस्या नहीं होती है भण्डारण कि बिशेष समस्या मैदानी भागो में होती  है मैदानी क्षेत्रो में आलू को ख़राब होने से बचाने के लिए शीत भंडार गृहों में रखने कि आवश्यकता होती है इन शीत भंडार गृहों में तापमान डिगरी 1 से 2.5 डिग्री सेल्सियस और आपेक्षिक आद्रता 90-95% होती है .

मंगलवार, 5 अक्टूबर 2021

गेहूँ की खेती की तैयारी

गेहूँ की खेती की तैयारी 

अन्य फसल का विवरण जानना चाहते है तो हमे बताएं आने वाले रबी फसलो की बुवाई से पहले करें मृदा जनित रोगों का ट्राइकोडर्मा के द्वारा करें जैव निंयत्रण   पशुपालन, मुर्गी पालन आदि मे आजकल ध्यान रखने वाली कुछ बातें            

बुवाई तकनीक
जमीन की तैयारी
1. आड़ी तिरछी जुताई कर खेत को समतल करें।
2. पानी की बचत हेतु खेत को 15-20 मीटर की लम्बाई के प्लाट बना कर बुवाई करें। 
3. खेत तैयारी मे होने वाले खर्च को कम करने हेतु जेरो टिलेज पद्दती से बुवाई करें।
किस्में/प्रजातियां
1.सिंचित समय से बिवाई हेतु: WH 542, UP 2338, Raj 3077, PBW 343, HD 2687, PBW 502, PBW 443, DBW 17,DBW 39, HUW 510, K 8804 (K 88), HD 2402, HP 1731 (Rajlaxmi), HUW 468, HD 2733, HD 2824 , UP 2628,PBW 550 2.
2.सिंचित देरी से बुवाई हेतु: HD2932, UP 2338, PBW 226, Raj 3765, RAJ 3077, PBW 373, UP 2425, K9162, HUW 234, HP 1633, DBW 14 , राज.3077, UP 2565 3. असिंचित क्षेत्रों के लिए: K8027, K9644, K8962, HRD 77, K9465  4.: KRL 1-4, Raj 3077, PBW 65, KRL 19, K9644, HRD-77, K9465
बीजोपचार
1. फसल को बीज जनित रोगो जैसे- खुला कंडुआ, फ़्लैग कंडुआ से बचाने हेतु बीज को 100 ग्राम टेबुकोनाज़ोल 2DS (रेक्सिल) /100 किलो बीज की दर से उपचरित करें।
2. दीमक के कारण पौधो मे पीलापन के साथ सूखने की समस्या आती है। बचाव हेतु 5ml क्लोरपाइरीफॉस 20EC प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें।
3. मिट्टी और बीज जनित रोगो से बचाव हेतु बीज को 2gm कार्बोक्सिन 37.5% + थाइरम 27.5% (विटावेक्स पावर) प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें।
बुवाई तथा बुवाई विधि
1.अगेती बुवाई (10 अक्टू.- 5 नवम्बर), 1-2 सिचाई उपलब्ध होने पर व देरी से बुवाई (5-25 नवम्बर), 3 से अधिक सिचाई उपलब्ध होने पर कर सकते है। 
2. यदि आप बुवाई हेतू पुराना बीज प्रयोग कर रहे हैं तो इसका अंकुरण प्रतिशत की जांच कर ले। अंकुरण 75 % से अधिक होने पर ही बुवाई हेतु ऐसे बीज का उपयोग करे। बुवाई सूखे मे कर सिंचाई करें।
बीज दर
आमतौर पर बीज दर 40-50kg प्रति एकड़ रखे, देरी से बुवाई की स्तिथि मे बीज दर 50-60 किलो/ एकड़ तक बड़ा ले.
खरपतवार प्रबंधन
1. संकरी पत्ती के खरपतवार की रोकथाम हेतु 160gm क्लोडिनाफॉप (विकेट) /एकड /200ली पानी मे छिडके।
2. संकरी और चौड़ी पत्ती के खरपतवारों के नियंत्रण हेतु 160gm क्लोड़ीनाफ़ोप प्रोपरजायल + मेट्सल्फ़ुरोन मिथाइल/ एकड़/ 150ली पानी 20-25 दिन बाद छिड़के।
3. चौड़ी पत्ती के खरपतवार के नियंत्रण हेतु 8gm मेट्सल्फ्यूरोन मिथाइल 20WP/ एकड़/ 200ली पानी, बुवाई के 30 दिन बाद छिड़के।
शस्य क्रिया
बुवाई के 40-50 दिन बाद निंदाई गुड़ाई कर हल्की सिंचाई करें।
फसल पोषण
देशी खाद व बायो फर्टिलाइजर
1. खेत की तैयारी के समय अच्छी सडी हुई 6-8 टन गोबर की खाद या 1 टन वर्मीकम्पोस्ट प्रति एकड़ प्रयोग करें।
रासायनिक खाद
1. अच्छे विकास और अधिक उपज हेतु बुवाई के समय 40kg यूरिया+ 50kg DAP + 30kg MOP + 10kg ज़िंकसल्फ़ेट/एकड़ प्रयोग करे।
2. बुवाई के 20-25 दिन बाद पर्याप्त नमी मे 40kg यूरिया + 5kg बेंटोनाइट सल्फर प्रति एकड़ प्रयोग करें।
घुलनशील उर्वरको का स्प्रे
1. अच्छी वानस्पतिक वॄधि के लिए 1kg 19:19:19 (NPK) प्रति एकड़ प्रति 150 ली पानी मे बुवाई के 25-30 दिन बाद छिड़के।
2. अच्छी उपज व गुणवत्ता के लिए दाना भरते समय, 1kg पानी मे घुलनशील उर्वरक एनपीके (00:52:34) प्रति एकड़ 200 ली पानी मे मिलाकर छिड़के। 
3. फसल के अच्छे विकास के लिये 1kg पोटेशियम नाइट्रेट (13:00:45) प्रति एकड़ प्रति 200लीटर पानी मे बुवाई के 60-70 दिन बाद छिड़कें।
पोषक तत्वो की कमी व उपचार
1. ज़िंक की कमी मे पत्ती के मध्य भूरे धब्बे बन जाते है, पूर्ति हेतु 100gm ज़िंक 12%EDTA/एकड़/200ली पानी, बुवाई के 30 दिन बाद छिड़के।
पौध वृद्धि वर्धक
1. अच्छे विकास व अधिक उपज हेतु 5kg धनजाएम गोल्ड या 5kg ट्राइकोंटानोल (विपुल) + 3kg मोनोज़िंक 33%/ एकड़ आधार खाद के साथ प्रयोग करें।
2. अच्छे विकास व उपज हेतु बुवाई के 40-45 दिन बाद, पर्याप्त नमी मे 5kg रैलीगोल्ड या धनजायम गोल्ड/ एकड़ प्रयोग करे।
3. अच्छे विकास व अधिक उपज हेतु 8kg बायोविटा या 10kg ट्राइकोंटानोल (विपुल) + 5kg मोनोज़िंक 33% /एकड़ बुवाई के 30-35 दिन बाद प्रयोग करे।
सिंचाई
सिंचाई अनुतालिका
अच्छी उपज हेतू, क्रान्तिक अवस्थाओ पर सिंचाई अवश्य दे. ये अवस्थाये है पहली- बुवाई से 20 दिन बाद, दूसरी- 40दिन बाद, तीसरी- 70दिन बाद, चौथी- 90 दिन बाद व पांचवी- 110 दिन बाद. 
सिंचाई की कुल आवश्यकता भूमि प्रकार, शीत ऋतु वर्षा तथा प्रत्येक सिंचाई पर दी जाने वाली पानी की मात्रा पर निर्भर करती है.।

सोमवार, 4 अक्टूबर 2021

टमाटर की उन्नत उत्पादन तकनीक

टमाटर की उन्नत उत्पादन तकनीक 

1.आदर्श तापमान
2.भूमि
3.टमाटर की किस्में
4.बीज की मात्रा और बुवाई
5.बीज उपचार
6.नर्सरी एवं रोपाई
7.उर्वरक का प्रयोग
8.सिंचाई
9.मिट्‌टी चढ़ाना व पौधों को सहारा देना (स्टेकिंग)
10.खरपतवार नियंत्रण
11.प्रमुख कीट एवं रोग
12.एकीकृत कीट एवं रोग नियंत्रण
13.फलों की तुड़ाई,उपज एवं विपणन

आदर्श तापमान

टमाटर की फसल पाला नहीं सहन कर सकती है। इसकी खेती हेतु आदर्श तापमान 18. से 27 डिग्री से.ग्रे. है। 21-24 डिग्री से.ग्रे तापक्रम पर टमाटर में लाल रंग सबसे अच्छा विकसित होता है। इन्हीं सब कारणों से सर्दियों में फल मीठे और गहरे लाल रंग के होते हैं। तापमान 38 डिग्री से.ग्रे से अधिक होने पर अपरिपक्व फल एवं फूल गिर जाते हैं।

भूमि

उचित जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि जिसमे पर्याप्त मात्रा मे जीवांश उपलब्ध हो।

टमाटर की किस्में

देसी किस्म-पूसा रूबी, पूसा-120,पूसा शीतल,पूसा गौरव,अर्का सौरभ, अर्का विकास, सोनाली

संकर किस्म-पूसा हाइब्रिड-1, पूसा हाइब्रिड -2, पूसा हाइब्रिड-4, अविनाश-2, रश्मि तथा निजी क्षेत्र से शक्तिमान, रेड गोल्ड, 501, 2535उत्सव, अविनाश, चमत्कार, यू.एस.440 आदि।

बीज की मात्रा और बुवाई

बीजदर

एक हेक्टयेर क्षेत्र में फसल उगाने के लिए नर्सरी तैयार करने हेतु लगभग 350 से 400 ग्राम बीज पर्याप्त होता है। संकर किस्मों के लिए बीज की मात्रा 150-200 ग्राम प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहती है।

बुवाई

वर्षा ऋतु के लिये जून-जुलाई तथा शीत ऋतु के लिये जनवरी-फरवरी। फसल पाले रहित क्षेत्रों में उगायी जानी चाहिए या इसकी पाल से समुचित रक्षा करनी चाहिए।

बीज उपचार

बुवाई पूर्व थाइरम/मेटालाक्सिल से बीजोपचार करें ताकि अंकुरण पूर्व फफून्द का आक्रमण रोका जा सके।

नर्सरी एवं रोपाई
•नर्सरी मे बुवाई हेतु 1X 3 मी. की ऊठी हुई क्यारियां बनाकर फॉर्मल्डिहाइड द्वारा स्टरलाइजेशन कर लें अथवा कार्बोफ्यूरान 30 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से मिलावें।
•बीजों को बीज कार्बेन्डाजिम/ट्राइकोडर्मा प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित कर 5 से.मी. की दूरी रखते हुये कतारों में बीजों की बुवाई करें। बीज बोने के बाद गोबर की खाद या मिट्‌टी ढक दें और हजारे से छिड़काव -बीज उगने के बाद डायथेन एम-45/मेटालाक्सिल से छिड़काव 8-10 दिन के अंतराल पर करना चाहिए।
•25 से 30 दिन का रोपा खेतों में रोपाई से पूर्व कार्बेन्डिजिम या ट्राईटोडर्मा के घोल में पौधों की जड़ों को 20-25 मिनट उपचारित करने के बाद ही पौधों की रोपाई करें। पौध को उचित खेत में 75 से.मी. की कतार की दूरी रखते हुये 60 से.मी के फासले पर पौधों की रोपाई करें।
•मेड़ों पर चारों तरफ गेंदा की रोपाई करें। फूल खिलने की अवस्था में फल भेदक कीट टमाटर की फसल में कम जबकि गेदें की फलियों/फूलों में अधिक अंडा देते हैं।

उर्वरक का प्रयोग

20 से 25 मैट्रिक टन गोबर की खाद एवं 200 किलो नत्रजन,100 किलो फॉस्फोरस व 100किलो पोटाश। बोरेक्स की कमी हो वहॉ बोरेक्स 0.3 प्रतिशत का छिड़काव करने से फल अधिक लगते हैं।

सिंचाई

सर्दियों में 10-15 दिन के अन्तराल से एवं गर्मियों में 6-7 दिन के अन्तराल से हल्का पानी देते रहें। अगर संभव हो सके तो कृषकों को सिंचाई ड्रिप इर्रीगेशन द्वारा करनी चाहिए।

मिट्‌टी चढ़ाना व पौधों को सहारा देना (स्टेकिंग)

टमाटर मे फूल आने के समय पौधों में मिट्‌टी चढ़ाना एवं सहारा देना आवश्यक होता है। टमाटर की लम्बी बढ़ने वाली किस्मों को विशेष रूप से सहारा देने की आवश्यकता होती है। पौधों को सहारा देने से फल मिट्‌टी एवं पानी के सम्पर्क मे नही आ पाते जिससे फल सड़ने की समस्या नही होती है। सहारा देने के लिए रोपाई के 30 से 45 दिन के बाद बांस या लकड़ी के डंडों में विभिन्न ऊॅचाईयों पर छेद करके तार बांधकर फिर पौधों को तारों से सुतली बांधते हैं। इस प्रक्रिया को स्टेकिंग कहा जाता है।

खरपतवार नियंत्रण
•आवश्यकतानुसार फसलों की निराई-गुड़ाई करें। फूल और फल बनने की अवस्था मे निंदाई-गुड़ाई नही करनी चाहिए।
•रासायनिक दवा के रूप मे खेत तैयार करते समय फ्लूक्लोरेलिन (बासालिन) या से रोपाई के 7 दिन के अंदर पेन्डीमिथेलिन छिड़काव करें।

प्रमुख कीट एवं रोग

प्रमुख कीट- हरा तैला, सफेद मक्खी, फल छेदक कीट एंव तम्बाकू की इल्ली

प्रमुख रोग-आर्द्र गलन या डैम्पिंग ऑफ, झुलसा या ब्लाइट, फल संडन

एकीकृत कीट एवं रोग नियंत्रण
•गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें।
•पौधशाला की क्यारियॉ भूमि धरातल से ऊंची रखे एवं फोर्मेल्डिहाइड द्वारा स्टरलाइजेशन करलें।
•क्यारियों को मार्च अप्रैल माह मे पॉलीथीन शीट से ढके भू-तपन के लिए मृदा में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।
•गोबर की खाद मे ट्राइकोडर्मा मिलाकर क्यारी में मिट्‌टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए।
•पौधशाला की मिट्‌टी को कॉपर ऑक्सीक्लोराइड के घोल से बुवाई के 2-3 सप्ताह बाद छिड़काव करें।
•पौध रोपण के समय पौध की जड़ों को कार्बेन्डाजिम या ट्राइकोडर्मा के घोल मे 10 मिनट तक डुबो कर रखें।
•पौध रोपण के 15-20 दिन के अंतराल पर चेपा, सफेद मक्खी एवं थ्रिप्स के लिए 2 से ३ छिड़काव इमीडाक्लोप्रिड या एसीफेट के करें। माइट की उपस्थिति होने पर ओमाइट का छिड़काव करें।
•फल भेदक इल्ली एवं तम्बाकू की इल्ली के लिए इन्डोक्साकार्ब या प्रोफेनोफॉस का छिड़काव ब्याधि के उपचार के लिए बीजोपचार, कार्बेन्डाजिम या मेन्कोजेब से करना चाहिए। खड़ी फसल मेंं रोग के लक्षण पाये जाने पर मेटालेक्सिल + मैन्कोजेब या ब्लाईटॉक्स का धोल बनाकर छिड़काव करें। चूर्णी फंफूद होने सल्फर धोल का छिड़काव करें।

फलों की तुड़ाई,उपज एवं विपणन

जब फलों का रंग हल्का लाल होना शुरू हो उस अवस्था मे फलों की तुड़ाई करें तथा फलों की ग्रेडिंग कर कीट व व्याधि ग्रस्त फलों दागी फलों छोटे आकार के फलों को छाटकर अलग करें। ग्रेडिंग किये फलों को केरैटे में भरकर अपने निकटतम सब्जी मण्डी या जिस मण्डी मे अच्छा टमाटर का भाव हो वहां ले जाकर बेचें। टमाटर की औसत उपज 400-500 क्विंटल/है. होती है तथा संकर टमाटर की उपज 700-800 क्विंटल/है. तक हो सकती है।

संतरे की बागवानी

संतरे की बागवानी

1.भूमि का चुनाव
2.संतरे के पौधे (कलम) खरीदने में सावधानियां
3.बगीचे की स्थापना
4.पौधों को लगाने के पूर्व उपचार व सावधानियां
5.बगीचों में अंतर फसलें
6.उर्वरकों का उपयोग
7.खरपतवार नियंत्रण
8.बहार उपचार (तान देना)
9.फल गलन
10.संतरा बागानों में कीट प्रबंधन
11.संतरा बागानों में रोग प्रबंधन

मध्यप्रदेश में संतरे की बागवानी मुख्यतः छिंदवाड़ा, बैतूल, होशंगाबाद, शाजापुर, उज्जैन, भोपाल, नीमच,रतलाम तथा मंदसौर जिले में की जाती है। प्रदेश में संतरे की बागवानी 43000 हैक्टेयर क्षेत्र में होती है। जिसमें से 23000 हैक्टेयर क्षेत्र छिंदवाड़ा जिले में है। वर्तमान में संतरे की उत्पादकता दस से बारह टन प्रति हैक्टेयर है जो कि विकसित देशों की तुलना मे अत्यंत कम है। कम उत्पादकता के कारकों में बागवानी हेतु गुणवत्तापूर्ण पौधे (कलम) का अभाव तथा रख-रखाव की गलत पद्धतियां प्रमुख हैं। मध्यप्रदेश में संतरे की किस्म नागपुर संतरा (Citrus reticulate Blanco variety Nagpur Mandrin)प्रचलित है।

भूमि का चुनाव

संतरे की बागवानी हेतु मिट्‌टी की ऊपरी तथा नीचे की सतह की संरचना और गुणों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। बगीचा लगाने से पहले मिट्‌टी परीक्षण कर भविष्य में आने वाली समस्याओं का निदान कर बगीचे के उत्पादन व बगीचे की आयु में वृद्धि की जा सकती है।

मिट्‌टी के अवयव
 
मिट्‌टी की गहराई से. मी.
 
 
0-15
 
15-30
 

पी.एच.
 
7.6.-7.8
 
7.9-8.0
 

इ.सी.
 
0.12.0.24
 
0.21.0.28
 

मुक्त चुना (%)
 
11.4
 
18.2
 

यांत्रिक अवयव (%)
   

रेती
 
20.8.40.1
 
19.0.32.7
 

सील्ट
 
26.8.30.4
 
11.2.26.8
 

चिकनी मिट्‌टी
 
42.8.48.8
 
54.2.56.1
 

जलघुलनशील घनायन मि.ली. ली
   

कैल्शियम
 
168.31.182.3
 
192.50.212.45
 

मैग्नेशियम
 
39.4.42.7
 
32.20.42.10
 

सोडियम
 
0.98.1.1
 
0.68.1.23
 

पौटेशियम
 
1.2.2.8
 
11.40.12.80
 

वीनीमय घनायन (सेंटी मोल)किलो
   

कैल्शियम
 
31.9.32.3
 
38.1.41.2
 

मैग्नेशियम
 
8.5.10.1
 
9.2.10.0
 

सोडियम
 
0.68.1.23
 
0.8.1.1
 

पौटेशियम
 
3.2.4.1
 
4.5.4.6
 

संतरे के पौधे (कलम) खरीदने में सावधानियां

संतरे के रोगमुक्त पौधे संरक्षित पौधशाला से ही लिये जाने चाहिए।ये पौधे फाइटोप्थारा फफूद व विषाणु रोग से मुक्त होते हैं।

रंगपुर लाईम या जम्बेरी मूलवन्त तैयार कलमे किये हुए पौधे लिए जाने चाहिए। कलमें रोगमुक्त तथा सीधी बढ़ी होना चाहिए जिनकी ऊंचाई लगभग 60 से.मी. हो तथा मूलवंत पर जमीन की सतह से बडिंग 25 से.मी ऊँचाई पर की हो। इन कलमों में भरपूर तन्तूमूल जड़ें होना चाहिए, जमीन से निकालने में जड़ें टूटनी नही चाहिएं तथा जड़ों पर कोई जख्म नही होना चाहिए।

बगीचे की स्थापना

संतरे के पौधे लगाने के लिये 2 रेखांकन पद्धति का उपयोग होता है-वर्गाकार तथा षटभुजाकार पद्धति। षटभुजाकार पद्धति में 15 प्रतिशत पौधे वर्गाकार पद्धति की तुलना में अधिक लगाये जा सकते हैं। गढढे का आकार 75×75×75 से. मी. तथा पौधे को 6×6 मी. दूरी पर लगाना चाहिए। इस प्रकार एक हैक्टेयर में 277 पौधे लगाये जा सकते हैं। हल्की भूमि में 5.5×5.5 मी. अथवा 5×5.मी. अंतर पर 300 से 400 पौधे लगाये जा सकते हैं।

गढ़्ढे भरने के लिये मिट्‌टी के साथ प्रति गढढा 20 किलो सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ 500 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 500ग्राम नीम खली तथा 10 ग्राम कार्बेन्डाजिम का उपयोग करें।

पौधों को लगाने के पूर्व उपचार व सावधानियां

पौधे की जड़ों को मेटालेक्जील एम जेड 72,2 2.75 ग्राम के साथ कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से पौधा लगाने के पहले 10-15 मिनट तक डुबोना चाहिए।पौधे लगाने के लिए जुलाई से सितंबर माह का समय उपयुक्त है ध्यान रखें कि कली का जोड़ जमीन की सतह से 25 से.मी. ऊपर रहे। जमीन से 2.5 से 3 फीट तक आवांछित शाखाओं को समय समय पर काटते रहें।

बगीचों में अंतर फसलें

संतरे के बगीचों में 6 साल के पश्चात व्यवसायिक स्तर पर फसल ली जाती हैं। इस समय तक 6×6 मीटर की काफी जगह खाली रह जाती है अतः कुछ उपयुक्त अंतरवर्ती दलहन फसलें ली जा सकती हैं। कपास जैसी फसलें जमीन से अधिक पोषक तत्व लेती हैं।

उर्वरकों का उपयोग

नत्रजनयुक्त उर्वरक की मात्रा को तीन बराबर भागों में जनवरी, जुलाई एवं नवम्बर माह में देना चाहिए। जबकि फास्फोरसयुक्त उर्वरक को दो बराबर भागों में जनवरी एवं जुलाई माह में तथा पोटाशयुक्त उर्वरक को एक ही बार जनवरी माह में देना चाहिए ।

पौधों की आयु उर्वरक
 
1 वर्ष
 
2 वर्ष
 
3 वर्ष
 
4 वर्ष एवं अधिक
 

नाइटोजन
 
150
 
300
 
450
 
600
 

फास्फोरस
 
50
 
100
 
150
 
200
 

पोटाश
 
25
 
50
 
75
 
100
 

 

पोषक तत्व
 
कमी के लक्षण
 
उपचार
 

नत्रजन
 
पूरे पौधों की हरी पत्तियों पर एवं शिराओं पर हल्का पीलापन दिखाई देता है।
 
1-2 प्रतिशत यूरिया का छिड़काव या यूरिया 600-1200 ग्राम पौधा भूमि में डालें
 

फास्फोरस
 
पत्तियॉ छोटी सिकुड़कर लम्बी एवं भूरे कलर की हो जाती हैं। पील मोटा और बीच में पोंचा होकर फल में रस की मात्रा कम हो जाती है।
 
फास्फेटी उर्वरक जैसे सिंगल सुपर फास्फेट 500-2000 ग्राम प्रति पौधा वर्ष न्यूटरल से अल्कालाईन भूमी मे डालें

या रॉक फास्फेट 500-1000 ग्राम प्रति पौधा वर्ष अम्लीय भूमी में डालें।
 

पोटाश
 
फल छोटे होकर छिल्का मोटा होता है। तथा फल गोलाई की अपेक्षा लम्बे होते हैं।
 
पोटाशियम नाइट्रेट (1-3प्रतिशत) छिड़काव

या म्यूरेटापोटाश (180-500 ग्राम) पौधा/वर्ष भूमि में उपयोग करें।
 

मेग्नीशियम
 
पत्तियॉ की शिराओं के बीच में क्लोरेटिक हरे धब्बे दिखाई देते हैं।
 
डोलोमाईट 1-1.50 किलो /पौधों /वर्ष भूमि में डाले विशेषता इसका उपयोग अम्लीय भूमि में करें।
 

आयरन
 
पत्तियॉ कागज प्रतीत होती हैं तथा बाद में शिराओं के बीच का क्षेत्र पीला होकर पत्तियां सुखकर नीचे गिर जाती हैं।
 
फेरस सल्फेट (0.5 प्रतिशत) का छिड़काव करें या फेरस सस्फेट 200-250 ग्राम/पौधा/वर्ष भूमि में उपयोग करें।
 

मेंगनीज
 
पत्तियों के शिराजाल पत्तियों के रंग से अपेक्षाकृत अधिक हरा तथा पीलापन लिये होता है।
 
मेंगनीज सस्फेट 0.25 प्रतिशत का छिड़काव करें या 200-300 ग्राम/पौधा/वर्ष मेंग्नीज सस्फेट का भूमि में डालें
 

झींक
 
पत्तियाँ छोटी नुकीली गुच्छेनुमा तथा शिराओं का पीला होना अपरीपक्व अवस्था में पत्तियों का झड़ना, पत्तियों की ऊपरी सतह सफेद धारिया बनना अथवा पीली धारिया सफेद पृष्ठ लिये अनियमित आकार में शिराओं तथा मध्य शिराओं को घेरे हुये दिखता है।
 
झींक सस्फेट 0.5 प्रतिशत का छीड़काव करें। या झींक सस्फेट 200-300 ग्राम/पौधा/वर्ष भूमी मे डालें।
 

मॉलीबडेनम
 
पत्तियों के शिराओं के मध्य पीले धब्बे तथा बडे भूरे अनियमित आकार के धब्बे के साथ पीलापन तथा पत्तियों के बीच का अंतर कम हो जाता है।
 
अमोनियम मॉलीबडेनम 0.4-0.5 प्रतिशत का छिड़काव करें।या 22-50 ग्राम /पौधा/वर्ष भूमी में डालें।
 

बोरान
 
नई पत्तियों पर जलशोषित धब्बे और परीपक्व पत्तियों पर अर्धपारदर्शी धब्बों के साथ मध्य एवं अन्य शिराएं टूटती हुई दिखाई देती हैं।
 
सोडियम बोरेट 0.1-0.2 प्रतिशत का छिड़काव या बोरेक्स 25-50 ग्राम/पौधा/वर्ष भूमी मे उपयोग करें ।
 

कॉपर
 
फलों के छिल्के पर भूरापन लिये हुये क्षेत्र /दाग दिखाई देता है तथा फल हरा होकर कड़ा हो जाता है। ऊपर की शाखाएं सुखने लगती हैं।
 
कॉपर सल्फेट 0.25 प्रतिशत का छिड़काव करें।
 

अधिक सिंचाई से अधिक उत्पादन जैसी धारणा सही नही है। पटपानी(Flood Irrigation) से बगीचे को नुकसान होता है। गर्मी के मौसम में सिंचाई 4 से 7 दिन तथा ठंड के मौसम में 10 से 15 दिन के अंतर में करना चाहिए। सिंचाई का पानी पेड़ के तने को नही लगना चाहिए । इसके लिए सिंचाई की डबल रिंग प़द्धति का उपयोग करना चाहिए। टपक सिंचाई उत्तम विधि है इससे पानी की 40 से 50 प्रतिशत बचत होती है तथा खरपतवार भी 40 से 65 प्रतिशत कम उगते हैं । पेड़ों की वृद्धि व फलों की गुणवत्ता अच्छी होती है तथा मजदूरों की बचत भी होती है ।

अंबिया और मृग बहार लेने के लिए सतह सिंचाई अंतराल एवं मृदा आदृता तान अवधि

सिंचाई अंतराल (दिन)
 
बहार लेने हेतु आवश्यक बातें
 

हल्की जमीन
 
भारी जमीन
 

ग्रीष्मकाल
 
शीतकाल
 
ग्रीष्मकाल
 
शीतकाल
 

5-7
 
12-15
 
7-10
 
15-21
 
तान-नवंबर दिसंबर, तान समाप्ती- जनवरी का दूसरा पखवाड़ा, तान अवधि15 से 60 दिन सिंचाई- वर्षा शुरु होने तक देना,
 

5-7
 
12-15
 
7-10
 
15-21
 
तान मई,तान समाप्ती-जून, वर्षा के अभाव मे सिंचाई करें,तान अवधि - 20 से 45 दिन
 

खरपतवार नियंत्रण

एक बीजपत्रीय खरपतवार मे मोथा,दूबघास तथा कुश एवं द्वीबीजपत्री में चौलाई बथुआ,दूधी,कांग्रेस,घास मुख्यतः पाये जाते हैं।

खरपतवार निकलने से पहले- डायूरान 3 कि. ग्रा या सीमाजीन 4 किग्रा. सक्रिय तत्व के आधार पर प्रति हेक्टर के दर से जून महीने के पहले सप्ताह में मिट्‌टी पर प्रथम छिड़काव और 120 दिन के बाद सितंबर माह में दूसरा छिड़काव करने से बगीचा लगभग 10 माह तक खरपतवारहित रखा जा सकता है।

खरपतवार निकलने के पश्चात-ग्लायफोसेट 4 लीटर या पेराक्वाट 2 लीटर 500 से 600 लीटर पानी मे मिलाकर प्रति हैक्टर के दर से उपयोग करें। जहा तक संभव हो खरपतवारनाशक फूल निकलने से पहले उपयोग करे। खरपतवारनाशक का प्रयोग मुख्य पौधों पर नही करना चाहिए।

बहार उपचार (तान देना)

पेड़ों में फूल धारणा प्रवृत्त करने हेतु फूल आने की अवस्था में बहार उपचार किया जाता है। इस हेतु मृदा के प्रकार के अनुसार बगीचे में 1 से 2 माह पूर्व सिंचाई बंद कर देते हैं। इससे कार्बन : नत्रजन अनुपात में सुधार आता है (नत्रजन कम होकर कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है) कभी कभी सिंचाई बंद करने के बाद भी पेड़ों में फूल की अवस्था नही आती ऐसी अवस्था में वृद्धि अवरोधक रसायन सी.सी.सी. 1500-2000 पी.पी.एम. या प्लेक्लोबुटराझाल (कलटार)का छिड़काव किया जाना चाहिए।

फल गलन

फलो का गिरना वर्ष में दो या तीन बार में होता है-

प्रथम फल गोली के आकार से थोड़ा बड़ा होने पर तथा दूसरा फल पूर्ण विकसित होने या फल रंग परिवर्तन के समय। फल तुड़ाई के कुछ दिन पहले फल गलन अम्बिया बहार की काफी गंभीर समस्या है।

फल गलन की रोकथाम हेतु फूल आने के समय जिब्रेलिक अम्ल 10 पी.पी.एम. यूरिया 1 प्रतिशत का छिड़काव करें। फल लगने के बाद फलों का आकर 8 से 10 मि.मी. 2, 4-डी 15 पी.पी.एम. बिनामिल तथा कार्बेन्डाजिम 1000 पी.पी.एम. यूरिया 1 प्रतिशत का छिड़काव करें ।फल 18 से 20 मि.मी. आकरमान के होने के बाद जिब्रेलिक अम्ल 10 पी.पी.एम. पोटेशियम नायट्रेट 1 प्रतिशत छिड़काव करें । सितंबर माह में 2,4-डी 15 पी.पी.एम.बिनामिल या कार्बेन्डाजिम 1000 पी.पी.एम. और यूरिया 1 प्रतिशत का छिड़काव करें।अक्टूबर महीने में जिब्रेलिक अम्ल 10 पी.पी.एम. पोटेशियम नायट्रेट 1 प्रतिशत का छिड़काव करें। 2,4-डी या जिब्रेलिक अम्ल 30 मिली. अल्कोहल या एसिटोन में घोलें व बाद में पानी मिलाएं।मृग बहार की फसल के लिए भी उपरोक्त रोकथाम के उपाय करें ।

संतरा बागानों में कीट प्रबंधन

संतरे का सायला कीट
1.प्रौढ़ एवं अरभक क्षतिकारक अवस्थाएं
2.कीट समूह में रहकर नाजुक पत्तियों से तथा फूल कलियों से रस शोषण करते हैं परिणामतः नई कलियां तथा फलों की गलन होती है।

नियंत्रण-१.जनवरी-फरवरी, जून-जुलाई तथा अक्टूबर -नवम्बर में नीम तेल (3-5 मि.ली./लीटर) या इमिडाक्लोप्रिड अथवा मोनोक्रोटोफॉस का छिड़काव करें।

पर्ण सुरंगक कीट
1.नर्सरी तथा छोटे पौधों पर अधिक प्रकोप होता है, जिससे वृद्धि रूक जाती है। यह कीट मिलीबग तथा कैंकर रोग के संवाहक हैं।
2.जीवन क्रम 20 से 60 दिन तथा वर्ष में 9 से 13 पीढ़ियां
3.प्रकोप संपूर्ण वर्ष भर परंतु जुलाई-अक्टूबर तथा फरवरी-मार्च में अधिक।

नियंत्रण
1.नर्सरी में कीट ग्रसित पत्तियों को छिड़काव पूर्व तोड़कर नष्ट करें।

नीबू की तितली
1.कीट प्रकोप वर्ष भर परंतु जुलाई-अगस्त में सर्वाधिक
2.वर्ष में 4-5 पीढ़ियां
3. इल्लियों की पत्तियां खाने की क्षमता बहुत अधिक होती है।
4.इल्लियों का रंग कत्थई, काला होता है। विकसित इल्ली पर सफेद चित्तीयां होती हैं जिससे चिड़ियों की बीट के समान प्रतीत होती हैं।

छाल खाने वाली इल्लियां
1.इल्लियां रात्रिचर - तने से बाहर आकर रात में छाल का भक्षण करती हैं।
2.तने में अधिकतम 17 छिद्र देखे गये हैं।

संतरा बागानों में रोग प्रबंधन

फायटोफ्थोरा बीमारी के लक्षण

फायटोफ्थोरा रोग से नर्सरी में पौधे पीले पड़ जाते है, बढ़वार रूक जाती है तथा जड़ों की सड़न होती है। इस फफूंद के कारण जमीन के ऊपर तने पर दो फीट तक काले धब्बे पड़ जाते हैं जिसके कारण छाल सूख जाती है। इन धब्बों से गोंद नुमा पदार्थ निकलता है। पेड़ों की जड़ों पर भी इस फफूंद से क्षति होती है। प्रभावित पौधे धीरे-धीरे सूख जाते हैं।

रोग का उदगम

फायटोफ्थोरा फफूंद के रोगाणु गीली जमीन से बहुत जल्दी बढ़ जाते हैं। इसके बीजाणू वर्षा पूर्व 25 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान पर बढ़कर थैली नुमा आकार के हो जाते हैं जो पानी के साथ तैरकर जड़ों की नोक तथा जड़ों की जख्म के संपर्क में आकर बीमारी का प्रसार करते हैं। इन बीजाणुओं से धागेनुमा फफुंद का विकास होता है जो बाद में कोशिकाओं में प्रवेश कर फफूंद का पुनः निर्माण करते हैं। फायटोफ्थोरा फफूंद पूरे वर्ष भर नर्सरी तथा बगीचो की नमी में सक्रिय रहती है।

रोग के फैलाव के प्रमुख कारण
1.फायटोफ्थोरा के लिए अप्रतिरोधक मातृवृक्ष (रूटस्टाक) का उपयोग।
2.बगीचे में पट पानी देना तथा क्यारियों में अधिक समय तक पानी का रूकना।
3.गलत पद्धति से सिंचाई द्वारा प्रसार।
4.जमीन से 9 इंच से कम ऊॅचाई पर कलम बांधना।
5.एक ही जगह पर बार बार नर्सरी उगाना।
6.रोग प्रभावित बगीचो के पास नर्सरी तैयार करना।

प्रबंधन

पौध शाला में फायटोफ्थोरा रोग का प्रबंधन
1.बोनी के पूर्व फफूंद नाशक दवा से बीजोपचार करना चाहिए।
2.पौधों को पौध शाला से सीधे बगीचे में नही ले जाना चाहिए।जड़ों को अच्छी तरह धोकर, मेटालेक्जिल एम. जेड 2.75 ग्राम प्रति लिटर के साथ कार्बिनडाजिम/ग्राम प्रति लिटर घोल से 10 मिनट तक उपचारित करना चाहिए।
3.जमीन से लगभग 9 इंच के ऊपर कलम बांधना चाहिए।
4.पौध शाला में प्लास्टिक ट्रे एवं निर्जिवीकृत (सुक्ष्मजीव रहित) मिट्टी का उपयोग करना चाहिए।
5.पौधशाला हेतु पुराने बगीचों से दूर अच्छी जल निकासी वाली जमीन का चयन करना चाहिए।

बागानों में फायटोफ्थोरा रोग का प्रबंधन

रोकथाम के उपाय
1.अच्छी जल निकासी वाली जमीन का चुनाव करें।
2.अच्छी प्रतिरोधकता वाली मूलवृन्त का चुनाव करें।
3.अधिक सिंचाई और जड़ों को टूटने से बचाना चाहिए।
4.पौध रोपण के समय कलम जमीन की सतह से लगभग 6 से 9 इंच ऊॅंचाई पर होना चाहिए।
5.तने को नमी से बचाने के लिए डबल रिंग सिंचाई पद्धति का उपयोग करना चाहिए।
6.वर्षा के पहले और बाद में तने पर बोर्डेक्स पेस्ट लगाना चाहिए।

अलसी की खेती

अलसी की खेती

उपयुक्त जलवायु
             अलसी की खेती बीज और तेल के उद्देश्य से अधो-उष्ण कटिबन्धीय  और शीतोष्ण कटिबन्धीय देशों में की जाती है। ठंडे देशों में इसे बहुधा रेशे  के लिए उगाया जाता है। अलसी की खेती के लिए साधारणतया ठण्डी और शुष्क जलवायु की आवश्कता होती है। अलसी की फसल रबी मौसम (शरद काल) में ली जाती हैं । सामान्यतः 80 - 100 सेमी. वार्षिक वर्षा अलसी की खेती के लिए उपयुक्त रहती है। इसकी अच्छी फसल के लिए 21-27 डि से तापक्रम उत्तम रहता है। जीवन काल के आरम्भ में अधिक तापमान होने से पौध  रोगी हो  जाते है । फसल वृद्धिकाल या फूल आने के समय पाले का पड़ना अत्यधिक हाँनिकारक होता है। रेशा उत्पादन करने वाली किस्मो  के लिए ठंडा और  आद्र वातावरण अच्छा माना जाता है ।फसल पकने के समय दाना एवं रेशा वाली दोनों  ही किस्मो को  अपेक्षाकृत अधिक तापक्रम तथा शुष्क वातावरण की आवश्यक होती है।
भूमि का चयन 
    अलसी की उत्तम खेती के लिए मध्यम उपजाऊ दोमट मृदा  सर्वोत्तम होती है। वर्षा ऋतु के बाद संचित नमी से ही ख्¨ती ह¨ने का कारण अलसी को  भारी मटियार या दोमट भूमि मे ही बोया जाता  है। मध्य प्रदेश में इसकी खेती कपास की काली मिट्टियों  में की जाती है।  यदि ऊपर की मिट्टी दोमट तथा नीचे की मटियार है  तो  फसल अच्छी ह¨ती है । उतेरा पद्धति (धान की खड़ी फसल मे बीज बोना) के लिए धान के भारी खेत, जिसमें नमी अधिक समय ते संचित रहती हैं, उपयुक्त रहती है। मृदा का पीएच मान उदासीन होना चाहिए। खेत में जलनिकास का उत्तम प्रबन्ध होना अनिवार्य है।
भूमि की तैयारी
    बीज के अंकुरण और उचित पौध  वृद्धि के लिए आवश्यक है कि बुआई से पूर्व भूमि को अच्छी प्रकार से तैयार कर लिया जाए। धान की फसल कटाई पश्चात् बतर आने पर खेत की  मिट्टी पलटने वाले हल से एक बार जोतने के पश्चात् 2-3 बार देशी 2-3 बार देशी या हैरो चलाकर भूमि तैयार की जाती है। जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए जिससे भूमि में नमी संचित हो सके। उतेरा बोनी हेतु धान के खेतों में समय-समय पर खरपतवार निकालकर खेतों को इनसे साफ रखना चाहिये।
बोआई का समय
    फसल का जल्दी बोना  अच्छी पैदावार के लिए लाभदायक पाया गया है। प्रायः ऐसा माना जाता है कि अच्छी प्रकार से तैयार की गई भूमि में उचित समय एवं सही तरीके से फसल को  बो  देने मात्र  से ही सफलता का आधा रास्ता तय हो  जाता है । सामान्यतौर पर अक्टूबर के प्रथम सप्ताह से लेकर मध्य नवम्बर तक बुआई की जाती है। असिंचित दशा  में अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े तक बुआई कर लेनी चाहिये। देर से फसल बोने पर गेरूआ , बुकनी रोग तथा अलसी की मक्खी द्वारा फसल को काफी नुकसान होता है। छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश में धान की खड़ी फसल में अलसी की बुआई (उतेरा) सामान्य समय से एक माह पूर्व ही कर दी जाती है। मिलवां खेती में अलसी मुख्य फसल के साथ ही बोई जाती है ।
उन्नत किस्में
           अलसी की देशी किस्मों की उपज क्षमता कम होती है क्योंकि इन पर कीट तथा रोगों का प्रकोप अधिक होता है। अतः अधिकतम उपज लेने के लिए देशी किस्मों के स्थान पर उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज का उपयोग करना चाहिए। क्षेत्र  विशेष के लिए जारी की गई किस्मो  को  उसी क्षेत्र में उगाया जाना चाहिए, अन्यथा जलवायु संबंधी अंतर होने के कारण भरपूर उपज नहीं मिल सकेगी । 
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित अलसी की नवीन उन्नत किस्मो  की विशेषताएं
1. दीपिका: इस किस्म की पकने की अवधि 112 - 115 दिन, औसत उपज 12 - 13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा बीज में तेल का अंश 42 % होता है। अनुमोदित उर्वरक देने पर 20.44 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज देती है। इसके बीज मध्यम आकार (1000 दानों का भार 6.2 ग्राम) के होते हैं। यह अर्द्ध-सिंचित व उतेरा खेती के लिए उपयुक्त है। यह किस्म म्लानि (विल्ट) और रतुआ (रस्ट) रोगों के प्रति मध्यम प्रतिरोधक है।
2. इंदिरा अलसी- 32: यह 100 - 105 दिन में पकने वाली किस्म है जिससे 10 - 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। बीज हल्के कत्थई के मध्यम आकार (100 दानों का भार 6.5 ग्राम) के होते हैं। इसके बीज में तेल की अंश 39.3 % होता है। यह चूर्णिल आसिता रोग के प्रति मध्यम रोधी परन्तु म्लानि, आल्टरनेरिया झुलसा रोगों के प्रति सहिष्णु किस्म है। असिंचित दशा और उतेरा खेती के लिए उपयुक्त है।
3. कार्तिक (आरएलसी - 76): यह किस्म 98 - 104 दिन में तैयार हो जाती है तथा औसतन 12 - 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके बीज हल्के कत्थई रंग तथा मध्यम आकार (100 दानों का भार 5.5 ग्राम) के होते हैं। बीज में तेल 43%  तेल पाया जाता है यह किस्म प्रमुख रोग व वड फ्लाई कीट के प्रति मध्यम रोधी है तथा सिंचित व अर्द्ध सिंचित दशा में खेती हेतु उपयुक्त है।
4. किरण: अलसी की यह किस्म 110 - 115 दिन में तैयार होती है। औसतन 12 - 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज क्षमता तथा बीज में 43 %  तेल पाया जाता है। बीज चमकीला कत्थई रंग का बड़ा (100 दानों का भाग 6.2 ग्राम) होता है। यह रतुआ, म्लानि व चूर्णिला आसिता रोग प्रतिरोधक किस्म है। मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ की सिंचित दशाओं में खेती के लिए उपयुक्त हैं।
5. आरएलसी - 92: यह किस्म 110 दिन में पक कर तैयार हो जाती है तथा औसतन 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके बीज कत्थई रंग तथा बड़े (100 दानों का भाग 6.8 ग्राम) के होते हैं। बीज में तेल 42% तक पाया जाता है। यह चूर्णिल आसिता, म्लानि रोग प्रतिरोधी व वड फ्लाई कीट सहनशील है। देर से बोने व उतेरा खेती हेतु उपयुक्त किस्म है।
अलसी की अन्य उन्नत किस्मो  की विशेषताएं
1. जवाहर-17 (आर.17): इसका फूल नीला, बीज बड़ा  तथा बादामी रंग का होता है। इसमें फूल कम समय में एक साथ निकलते हैं और पौधे भी एक साथ पककर तैयार हो जाते हैं। अलसी की मक्खी से इसको कम नुकसान तथा गेरूआ रोग का भी असर नहीं होता है। यह जाति 115 - 123 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसमें तेल की मात्रा 46.3 प्रतिशत होती है। प्रति हेक्टेयर पैदावार 11.25 - 11.50 क्विंटल होती है। सम्पूर्ण म.प्र. के लिए उपयुक्त है।
2. जवाहर-23: इसके बीज मध्यम आकार के व भूरे होते हैं। यह चूर्णिल आसिता रोधी तथा म्लानि व रतुआ के प्रति भी पर्याप्त रोधिता है। यह जाति 115 - 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसमें तेल की मात्रा 43 प्रतिशत होती है। प्रति हेक्टेयर पैदावार 10- 11 क्विंटल होती है। सम्पूर्ण म.प्र. के लिए उपयुक्त है।
3.जवाहर-552: यह किस्म 115-120 दिन में पककर तैयार होती है जिसकी उपज क्षमता 9-10 क्विंटल प्रति हैक्टर आंकी गई है । इसके बीज में 44 प्रतिशत तेल पाया जाता है । म.प्र. व छत्तीसगढ़ की असिंचित पद्धति के लिए उपयोगी है ।
द्वि-उद्देश्य (दाना व रेशा) वाली उन्नत किस्में
1.जीवनः यह किस्म 177 दिन में तैयार होकर 10.90 क्विंटल बीज और 11.00 क्विंटल रेशा प्रति हेक्टेयर तक देती है।
2.गौरवः यह किस्म 137 दिन मे पक कर तैयार होती है। औसतन 10.50 क्विंटल बीज और 9.50 क्विंटल  रेशा प्रति हेक्टेयर देती है।
बीज एवं बुआई
    बीज की मात्रा  बोने की दूरी, बीज के भार और  अंकुरण शक्ति, भूमि, जलवायु आदि पर निर्भर करती है । सामान्यतौर पर अलसी की पंक्तियों में बुआई के लिए 25 - 30 किलो प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है।  बीज छोटा होने के कारण कहीं-कहीं इसे बारीक  गोबर की खाद, राख या मिट्टी के साथ मिलाकर बोते है, जिससे खेत में सम रूप से  बोआई हो  सके । बीज सदैव प्रमाणित तथा कवकनाशी रसायन जैसे थाइरम या कैप्टन 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज के हिसाब से उपचारित करके बोना चाहिए। अलसी की ब¨आई हल के पीछे कूँड़ में , चोगे द्वारा कतार  में या बीज छिटक  कर की जाती है । परन्तु हल के पीछे कूँड़  विधि से बोआई सवर्¨त्तम मानी जाती है। बुआई सदैव पंक्तियों  में ही करना चाहिए। इससे सस्य क्रियाएँ करने में आसानी रहती है। बुआई हेतु पंक्ति-से-पंक्ति की दूरी 25 से 30 सेमी. रखनी चाहिए ध्यान रखें कि बीज 3 - 4 सेमी. से अधिक की गहराई पर न पड़े। पौधे-से-पौधे की दूरी 5-6 सेमी. रखते हैं जो कि अंकुरण पश्चात् निंदाई के समय पौध विरलन  से स्थापित की जाती है। बीज एवं रेशा दोनों एक साथ देने वाली किस्मों में बीज दर अपेक्षाकृत अधिक रखी जाती है। रेशा वाली किस्में कम दूरी पर बोयी जाती है । सिंचाई वाले क्षेत्रों  में बोआई  होते ही खेत को  क्यारियो  में काट लिया जाता है जिससे सिंचाई करने में सुविधा रहे ।
उतेरा पद्धति से अलसी की खेती
         अलसी की फसल को धान की खड़ी फसल में छिटककर बोने की विधि  को छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश में उतेरा तथा बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर प्रदेश में पैरा विधि कहते हैं। धान के खेत की उपलब्ध नमी  का समुचित उपयोग करने के लिए यह एक अच्छी पद्धति है। भारत वर्ष में कुल अलसी क्षेत्रफल का लगभग 25 से 30 प्रतिशत क्षेत्रफल उतेरा के अनतर्गत आता है। सामान्यतौर पर इस पद्धति में अलसी की खेती असिंचित दशा, अपर्याप्त पोषण और बिना पौध संरक्षण के होती है, इसलिये इसकी उपज अत्यन्त कम (4-5 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर ) होती है। प्रस्तुत उन्नत विधि से खेती करने पर उतेरा पद्धति से भी अच्छी उपज ली जा सकती है।
    उतेरा के लिए अनुमोदित किस्मों (जवाहर-7, जवाहर-552 आदि) के बीज का प्रयोग करना चाहिए। उतेरा विधि भारी मृदाओं में जिनमें जल धारण करने की पर्याप्त क्षमता  हो अपनाना चाहिए। उतेरा लेने के लिए धान की फसल में गोबर की खाद या हरी खाद तथा फास्फेटिक उर्वरकों का समुचित उपयोग करना चाहिए। अलसी बोने से 3 दिन पहले धान की खड़ी फसल में 10 - 20 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से नाइट्रोजन उर्वरक का छिड़काव करना चाहिए। उतेरा के लिए प्रति हेक्टेयर 35 -40 किग्रा. बीज का उपयोग करना चाहिए। उतेरा बोने का समय तथा धान के पकने का समय में जितना कम समय हो उतना ही अधिक फायदा धान व उतेरा फसल को होता है। अच्छी फसल के लिये 15 अक्टूबर तक अर्थात् धान की दुग्धावस्था के समय उतेरा फसल को बोना (छिड़काव) चाहिये। ऐसे क्षेत्र जहाँ सिंचाई सुविधा धान की फसल के लिये उपलब्ध हो, उतेरा की फसल जमीन में दरार लाकर  लेना लाभदायक पाया गया है। इसके लिये धान के पोटराने  पर खेत से पानी निकाल देना चाहिए। जमीन में 2 से 5 से.मी. (1 से 2 इंच) गहरी दरार  आने पर खेत में पुनः पानी  भर दिया जाए। यह स्थिति खेत से पानी निकालने के 6 से 8 दिनों के अन्दर आ जाती है। खेत में 5 से 7 दिनों तक पानी भरे रखने के बाद उतेरा की फसल प्रचलित पद्धति द्वारा ली जाती है। इस विधि से उतेरा की सामान्य पद्धति की अपेक्षा 50 प्रतिशत से अधिक पैदावार प्राप्त होने के अलावा धान की पैदावार पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता तथा उतेरा फसल में खरपतवार समस्या भी काफी कम हो जाती है। बीज छिड़कते समय यह सावधानी आवश्यक है कि बीज खेत में समान रूप से फैल जाए। अलसी में 1 - 2 बार हाथ से निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रित रहते हैं और उपज अधिक मिलती है। अधिक उपज के लिए आवश्यकतानुसार पौध संरक्षण उपाय भी अपनाना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
          पौधों की अच्छी बढ़वार और उपज के लिए भूमि में पोषक तत्वों की उचित मात्रा प्रदाय करना आवश्यक है। जीवन चक्र में अलसी का पौधा केवल 45 दिनो  तक ही पोषक तत्व ग्रहण करता है, जो  शेष जीवन के लिए भी पर्याप्त माना जाता है । सामान्य पद्धति से असिंचित भूमि में अलसी की खेती के लिए 30 किलो नत्रजन और   15 किलो स्फुर प्रति हेक्टेयर बुआई के समय देना चाहिए। सिंचित भूमि के लिए 60 किलो नत्रजन, 30 किलो स्फुर प्रति हेक्टेयर देना लाभप्रद रहता है। खाद बीज के पास दो नली वाले नारी हल द्वारा बोने के समय देना चाहिये। सिंचित दशा में नत्रजन की 2/3 तथा फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा बोने के समय तथा शेष नत्रजन की 1/3 मात्रा पहली सिंचाई के समय देना चाहिये। नाइट्रोजन धारी उर्वरकों के प्रयोग से पौधों मे फूल और संपुट अधिक संख्या में बनते हैं, जिसके फलस्वरूप उपज में वृद्धि होती है। फास्फोरस प्रदान करने के लिए सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग अधिक उपयोगी रहता है क्योंकि इससे फसल को फास्फोरस के अतिरिक्त सल्फर तत्व भी प्राप्त हो जाता है, जो  कि बीज में तेल की मात्रा बढ़ाने में सहायक रहता है।
    उतेरा पद्धति में 10 - 20 किलो नत्रजन प्रति हेक्टेयर धान के फूलने के समय अथवा उतेरा बोते समय डालना चाहिये। यह धान के लिये इस समय डालने वाली नत्रजन की मात्रा के अतिरिक्त होगा।
सिंचाई
          अलसी की खेती मुख्यतः वर्षा निर्भर क्षेत्रों में की जाती है। भारी मटियार मिट्टी वाले क्षेत्रो  में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु दोमट या हल्की मिट्टी पर जाड़े की वर्षा   न ह¨ने पर 1-2 सिंचाई करनी पड़ती है । सामान्य पद्धति से बोई जाने वाली अलसी में सिंचाई देने पर पैदावार डेढ़ से दो गुना अधिक ली जा सकती है। फसल बोते समय आवश्यक होने पर सिंचाई देना चाहिये। पहली सिंचाई फसल बोने के 30 - 40 दिन बाद तथा दूसरी सिंचाई फसल में फूल आने के पहले करना चाहिए। सिंचाई दाना बनते  समय  बंद कर देना चाहिये। अच्छी उपज के लिए फसल में 2 से 3 सिंचाई पर्याप्त हैं। खेत में जल निकास आवश्यक है।

शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

मिट्टी का पीएच-फसल उत्पादन

मिट्टी का पीएच-फसल उत्पादन में एक महत्वपूर्ण कारक
मिट्टी का पीएच के लिए अम्लता और क्षारीयता का मान पैमाना है । मृदा pH मान सबसे महत्वपूर्ण कारक के रूप में माना जाता है जो फसलों की उपज का निर्धारण कर सकता है. मिट्टी का पीएच (pH) भूमि के अंदर कई रासायनिक और जैव रासायनिक प्रतिक्रियाओं का विनियमन और नियंत्रण कर सकता है। यह पौधों को पोषक तत्वों की रासायनिक प्रतिक्रियाओं में शामिल करने में एक प्रमुख भूमिका निभाता है और pH पोषक तत्वों के रासायनिक रूपों पर भी प्रभाव डाल सकता है।

मिट्टी का पीएच (pH) मिट्टी के सूक्ष्म वनस्पति और जीव-जंतुओं की आबादी को बनाए रखने में विशेष कार्य करता है । मिट्टी के पी एच की इन प्रक्रियाओं को पौधों की पोषक तत्वों के कारण फसल की उत्पादकता पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है ।

मिट्टी का पीएच (pH) मान 1-14 (1-14) और 7 (7) को तटस्थ

            मिट्टी का पीएच रेंज

कृषि मिट्टी का पी एच इष्टतम मूल्य 5.5 से 7 के रेंज में पड़ता है ।

कई कृषि फसलें मिट्टी की इष्टतम पीएच रेंज में अच्छी तरह से बढ़ जाती हैं लेकिन कुछ फसलों में बाहर बढ़ने की क्षमता अनुकूलनशीलता के कारण हो सकती है लेकिन कुछ पौधे अम्लीयता को सहन नहीं कर पाते हैं।
अम्लता के प्रभाव

मिट्टी की अम्लता प्रकृति मिट्टी के खनिजों को भंग कर सकती है और इन धातुओं के आयनों से पौधों तक विषाक्तता हो सकती है. सामान्य मामलों में एल्यूमीनियम धातु आयनों को अम्लीय मिट्टी में विषाक्त कर रहे हैं. मैंगनीज और लोहे का उच्च स्तर फसल पौधों के सामान्य विकास को बाधित कर सकता है। फॉस्फोरस, कैल्शियम, मैग्नीशियम और मोलिब्डेनम पोषक तत्व जैसे कई आवश्यक पोषक तत्व अम्लीय मिट्टी में पौधों के लिए कम उपलब्ध हैं.

 

क्षारीयता का प्रभाव

क्षारीय भूमि के मामले में खनिजों की विलेयता कम कर दी जाती है ताकि पौधे में कमी के लक्षण दिखाई दे सकें । लौह, मैंगनीज, जस्ता, तांबा और बोरॉन में कमी उच्च पीएच. एच. मिट्टी में अधिक पाई जाती है. उच्च पी. एच. क्षारीय भूमि में फॉस्फोरस फॉस्फोरस भी कम उपलब्ध होता है । कैल्शियम जमा का उच्च स्तर संचित हो जाएगा और पोटेशियम और मैग्नीशियम पोषक तत्वों के अपक्षय को रोक सकता है ।

              मिट्टी का पीएच और पोषक तत्व उपलब्ध होता है ।

उपर्युक्त चित्र में हरे रंग से संबंधित पोषक तत्वों की मिट्टी में होने वाले पोषक तत्वों की इष्टतम उपलब्धता का संकेत मिलता है ।

असामान्य मिट्टी का पीएच प्रबंधन

अम्लीय मिट्टी के इलाज के लिए 5.8 से कम पी. कैल्शियम की सामग्री का उपयोग किया जा सकता है. की सटीक मात्रा. कैल्शियम स्रोत मिट्टी में जोड़ने या अम्लीय मिट्टी का इलाज करने के लिए एक अपरिवर्तनीय एसिडिटी विश्लेषण की आवश्यकता हो सकती है. मिट्टी में पाया जाने वाला मिट्टी का कैल्शियम और मैग्नीशियम भी कैल्शियम स्रोत चुनने के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है.

                              अम्लीय मिट्टी के लिए कैल्शियम स्रोत

उच्च पी. एच. क्षारीय मिट्टी का उपचार सल्फर या अम्ल जैसे कारकों से किया जा सकता है जैसे कि उर्वरक स्रोत उर्वरक स्रोत. पौधों या फसलों में क्षारीयता के कारण पोषक तत्वों की कमी का प्रबंधन करने के लिए विशेषज्ञों का सुझाव दिया जाता है क्योंकि यह मिट्टी को उगाने में आसानी से आसान है, जहां से फसल उगाई जाती है ।

 फसल उत्पादन पर असामान्य मृदा पी एच का प्रभाव

खराब रूट स्थापना
घटिया पौधे की शक्ति
लेग्यूम में गरीब ने सिर हिला दिया
असामान्य पर्ण रंग
बीमारी में वृद्धि
हितकर सूक्ष्मजीवियों में कमी तथा पादप रोगजनक जीवों में वृद्धि
अवरुद्ध फसल वृद्धि
पोषक तत्वों में कमी दर्शाने वाला पादप
गरीब फूल और फल सेटिंग
फसलों के लिए इष्टतम पीएच रेंज आवश्यकता

SL.No.

फसलें

इष्टतम पीएच रेंज

SL.No.

फसलें

इष्टतम पीएच रेंज

1

सेम, पोल

6.0-7.5

21

आलू

4.8-6.5

2

बेसेट रूट

6.0-7.5

22

कद्दू

5.5-7.5

3

ब्रोकोली

6.0-7.0

23

मूली

6.0-7.0

4

ब्रुसेल्स स्पेडर

6.0-7.5

24

पालक

6.0-7.5

5

गोभी

6.0-7.0

24

स्क्वैश

5.5-7.5

6

गाजर

5.5-7.0

26

टमाटर

5.5-7.5

7

फूलगोभी

5.5-7.5

27

मिर्ची

5.5-7.0

8

अजगन्/Coriander

5.8-7.0

28

सोफन्स

6.5 से 7.5

9

ताम/onions

6.0-7.0

29

गेहूं

6.3 से 7.0

12

ककडी

5.5-7.0

30

धान

5.5-7.5

11

लहसुन

5.5-8.0

31

ककडी

6.0- 7.0

12

सलाद

6.0-7.0

32

मस्कोमेन्स

6.0- 7.5

13

मटर

6.0-7.5

33

मार्गोल्ड

6.0 -7.5

14

कैपसिडियम

5.5-7.0

34

तरबूज

6.0-7.5

15

मक्की/मज़

5.8-7.5

35

सूरजमुखी

6.0 -7.5

16

फोर्सेज फसलें

5.8-7.5

36

मूंगफली

6.5-7.0

17

गन्ना

5.0-8.5

37

अनार

5.5-8.5

18

अमरूद

5.0-7.5

38

मोरिंगा/ड्रमस्टिक

6.5-8.0

19

आम

5.5-7.5

39

अंगूर

6.0-8.0

20

पपीता

5.5 -7.5

40

ग्राम

6.0-7.8

 

इसके बाद फसलों के लिए संकेतित इष्टतम पीएच पर्वतमाला हैं। फसल नियोजन के दौरान मृदा परीक्षण विश्लेषण से फसल को विशेष रूप से मिट्टी में जाने का निर्णय लेने में मदद मिलेगी । इसके अलावा अत्यधिक पीएच के साथ मिट्टी उपयुक्त रासायनिक और जैविक संशोधन एजेंटों के साथ कुछ हद तक सही किया जा सकता है ।

हालांकि कार्बनिक पदार्थ की बहुत जोड़ने, जैविक एजेंटों की तरह बायोफर्टिलाइजर बैक्टीरिया और कवक मिट्टी पीएच को बनाए रखने में बहुत मदद कर सकता है।

 

के संजीवा रेड्डी,

वरिष्ठ कृषि विज्ञानी, बिगहाट ।